अश्क़ बहाते देखा है
अश्क़ बहाते देखा है
सितमग़र को आज अश्क़ बहाते देखा है,
इक क़फ़स नज़रों को बनाते देखा है...
दामन-ए-आसमाँ की थी जो शान कभी,
उस बर्क़ को अपना दामन जलाते देखा है...
उनमें रहने की चाहत भी दिल-ए-यार में पाई,
ग़र कभी मिट्टी के घरौंदे सजाते देखा है...
अहल-ए-दुनिया की तवज्जो की ख़ातिर,
एक दाना को ख़ुद ही को सताते देखा है...
तमन्ना-ए-ज़ीस्त से फिर जुड़ गया यक़ तार,
एक हूर को परतवे-ख़ूर में नहाते देखा है...
मेरे आब्ला-ए-पा का है, अब भी ख़याल उसे,
राहों में काँटे मैंने, दोस्त को बिछाते देखा है...
दाम-ए-रुस्वाई से जो डरते हैं "शौक़" जहाँ में,
अश्क़ उन्हें ख़ुद ही से, छुपाते देखा है...
गुलशन-ए-ग़ैर के जो, नज़ारा-ए-ग़ुल से हैं नाख़ुश,
अपने गुलिस्ताँ के ख़ारों से, उन्हें दिल लगाते देखा है...
देखा है बशर को, मजबूर लक़ीरों के आगे,
ग़र हिम्मतवर हो तो लकीरों को हराते देखा है...