अपनों से सजा
अपनों से सजा
अपनो को चाहने की क्या खूब सजा मिली है
भरी बारिश मे जलने की हमको वज़ा मिली है
अब कोई और गम बिल्कुल भी नही सताता है,
अपनों से क्या ख़ूब गम की ये वफ़ा मिली है
हजारों सूर्य के बीच मे वो गम का अंधेरा हूं,
उजालो में रहकर भी तम का घना चेहरा हूं,
रोशनी से भी क्या खूब निशा की ध्वजा मिली है
अपनो को चाहने की क्या ख़ूब सजा मिली है
बहुत लूटा,बहुत दिल टूटा, फिर भी मोह न छूटा,
अपने ही हाथों से तुझे कातिल की त्वचा मिली है
अब रोना-धोना बंद कर,अपना निश्चय दृढ़ कर,
ख़ुद के वजूद से जीने की खुदा से रज़ा मिली है।