अपनी अपनी दुनिया
अपनी अपनी दुनिया
वह कोई बात थी जो कभी मेरे दिल को छू जाया करती थी.....
वह तुम्हारा दिलकश अंदाज़ जो कभी मेरे हवासों को गुम करता था.....
न जाने क्यों वक़्त बदलते ही बहुत सी बातों के मतलब बदल गए.....
वह तुम तुम नहीं रहे.....
और न मैं भी मैं रह सकी.....
वह वक़्त ही था जिसने सारी चीजें ही बदल दी
तुम्हारी प्रयोरिटीज़.....
तुम्हारी मसरूफ़ियात.....
तुम्हारी महत्वकांक्षाओं के दायरे......
और मैं ?
मैं तुम्हारे आसपास कही नहीं थी.....
मैं अपनी ही दुनिया मे मसरूफ़ होती गयी.....
बच्चों में......
गृहस्थी में......
अपने रोजमर्रा की कामों में......
मेरी दुनिया तुम्हारी दुनिया जितनी चमकदार नहीं थी.......
वही लहसुन प्याज़ और मसालों वाली एक बोरिंग दुनिया....
तुम्हारे लिए एकदम बेकार.....
खाने में कुछ हल्का सा भी कम ज्यादा होने पर तुम्हारा मुझ पर यूँ भड़कना....
तुम्हारा वह सोफिस्टिकेटेड बिहेवियर न जाने कहाँ खो जाता था?
मैं लुहलुहान होती जाती......
मेरी शिक्षा....मेरी कार्यकुशलता सब कुछ कही पीछे रह जाती…
मैं फिर सिमटती जाती उसी लहसुन प्याज़ और मसालों वाली दुनिया में....