अपने को क्या ?
अपने को क्या ?
भूत बनकर,
उभरते है शब्द
पिशाच बनकर,
घूमते है खून के प्यासे
पहुँचाते ठेस,
किसी के सम्मान को
लेकर भीड़ का स्वरुप
चल पड़ते,
तार तार करते अस्मत,
किसी अबला की
बुझता चिराग ,
किसी रोशन घर का
बहती धारा खून की
उम्मीद दिखती है,
नाउम्मीद की,
बदली हुई राख में
कानून व्यवस्था,
सब देखती ,
यह नपुंसक बनकर
इंतजार करती,
और चिराग बुझने का
हम यह सब देखते,
अपनी बोझिल आँखों से
और बच निकलते,
यह कहकर
अपने को क्या ?