अपने देश में अजनबी..!
अपने देश में अजनबी..!
हर बार
उन्हें लगता था
सब ठीक होगा
खुद को भी दिलासा दिया
कुछ तो नया होगा,
बदलाव आएगा
इस पतझड़ के बाद शायद
नई कोपलों संग बहार भी आएगी,
पर दिन बीते
दशकों गुजर गए
बदला कुछ नहीं,
ना चिनार के ऊंचे ऊंचे
दरख्तों की खामोशी
ना केसर का रंग
ना झेलम के बहते पानी का कलकल
ना डल का दर्पण,
ताउम्र मैं इसी उम्मीद में
अजनबी बन भटकता रहा
अपने ही देश में
अपनों के बीच
कि शायद वक्त बदले,
फिजाओं में
फिर वही कश्मीरियत की बयार
वही राग झलके,
वादियों में एक नई सुबह
कश्मशा कर अगड़ाई ले,
हर ओर हवाओं का शोर
और बस सरगोशियां गूंजे,
पहाड़ों की हल्की ठंड फिर से
जिस्म में सिहरन पैदा करे,
ट्यूलिप से हर बाग महक कर गुलजार हो जाएं
जलतरंग फिर वही सरगम छेड़े,
अपने जो बन गए अजनबी
कहवा से उनके स्वागत में नज़रे बिछे,
पर सब फरेब था
मिथ्या से भरा
सच का तिलिस्म
आखिर अब टूट गया,
चेहरों के नकाब उतर गए
दिल की फितरत दिखने लगी,
वादियों में गोलियों का खौफ
हर कलेजे को
छलनी कर गया,
अपने जो ठगे थे
चेहरों पर मायूसी
होंठों पे चुप्पियां
जहन में खलल लिए
भटक रहे हैं इधर उधर,
मेरी आंखों में पसरे
दर्द की इंतहा
सच आखिर जो सामने था,
और मैं ......
अपने ही देश में
अपनों के बीच
अजनबी...!
