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Anuradha अवनि✍️✨

Abstract Fantasy

4.5  

Anuradha अवनि✍️✨

Abstract Fantasy

अपना गांव

अपना गांव

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नूतन सूरज की किरणों से

ओज बिछा जाता भोर में,

जन -जन मन पंछी बन जाता

गांव मुंडेर में फिर मंडराता।।


सदियों से सदियों ने संजोया,

मृदा ने पग-पग ऐक्य पिरोया।

जंह श्वेत-श्याम का भेद नहीं 

हैं बसते स्वर्णिम गांव वहीं।


देशी बोली मिसरी घोले

डरिया जैसे कोयल बोले 

पानी-पानी जिह्वा हो जाए

आम देख दृग ललचाए।।


पीपर की शीतल छैयां में

मन हर्षित पुर्वैय्या में

वट तरु की मधुरिम डारों से

बचपन की स्मृतियां उभरें।


ग्रीष्म ऋतु के खट्टे-मीठे

सुक खग के फिर जूठे-जूठे

आम्र, जम्बुक, बेरों के फेरे 

का दिवस का निशि के डेरे।।


घुमड़ -घुमड़ बसन्ती बादल,

कृषक हृदय करे कोलाहल।

खेतों में फिर हल चलते हैं,

बक पीछे -आगे उड़ते हैं।।


रंग बिरंगे नीले- पीले,

पांती पुष्पों में भंवरों के मेले,

सौंदर्य से गांव खिल जाता है।

सुभग मनोरम जीवन पाता है।।


बस्ती किनारे बहते नहर हैं,

मध्य ग्राम के होते सरोवर,

खट्टे-मीठे बिगड़े जीवन के,

टूट गिरह संगम होता है।।


गोधूलि की स्वर्णिम बेला में,

दीपों की माला से सजकर,

शिवालय, पीपल , चौबारों पर

नेह की बाती जलती गांवों में।


मौन कोलाहल जब करता है,

ऊधम गलियन में होवे तब,

पग में पहन शिरीष की नूपुर

गांव मेरा छम-छम करता है।।



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