अनमनी घड़ियां
अनमनी घड़ियां
ये अनमनी घड़ियां क्यूँ
चली आती है ये घड़ियां
सब कुछ ख़रीद लाए
ये साँसे क्यूँ ना ख़रीद पाएँ
सालों से सफ़र में रही साँसें
तन के भीतर बहते
अब बस आख़री मुकाम है
बोझिल आँखों तले
तमस छंट जाएगा
साँसों की गिरह से
तन का नाता टूट जाएगा
इस रिश्ते के छूटते ही
जग से ही नाता टूट जाएगा
या खुदा बाँहें फैला
ये बेटी का रुख़सार
भर लिया आँखों में
कमज़ोर ना कर दे कहीं
ये मोह की गीली मिट्टी
ये बेटे की चाहत लो भर ली
दिल के बस्ते में
फुहार बनकर लिपट रही है
सरताज के वजूद की तपिश
मंद पड़ रही नब्ज़ को
पिघला ना दे कहीं
आख़री आँच की ख़लिश से जो
है ज़्यादा वेगिली
अपनों से हाथ छुड़ा
तुझमें तू मोह जगा तो
इस माया की डोर की गांठ खुले
जानती हूँ मौत तेरे कदमों में
फ़िरदौस है पर तू कहाँ जाने
कितना कमज़ोर
अपनों का मोह है।