साहस और समर्पण
साहस और समर्पण
साहस हो तो ऐसा की सूर्य को रस भरा आम समझकर लपकने की चेष्टा की जाए ।
साहस हो तो ऐसा की एक छलांग में सागर पार किया जाए ।
साहस हो तो ऐसा की की ब्रह्मास्त्र की बेड़ियों को फूल की पंखुड़ियां समझकर तोड़ा जाए ।
और साहस हो तो ऐसा की हजारों मील ऊंचे दानव को एक वार में धराशायी किया जाए ।
परंतु ,
साहस बिना समर्पण कब सार्थक होता है।
साहस को भी सत्य के समीप समर्पण करना पड़ता है।
अत्यधिक वेग से आती लहरों को तट के समीप समर्पण करना पड़ता है।
जिज्ञासा से भरे शिष्य को, गुरु के समीप समर्पण करना पड़ता है।
इसलिये तो,
हर युग में, महा बलशाली हनुमान को श्री राम के समीप समर्पण करना पड़ता है ।
