अनजान शहर में
अनजान शहर में
इस अनजान शहर में मुझे लोग तो बहुत हैं ,
मगर मेरे अपने कोई नहीं मिले ,
जिससे मैं कुछ पल दिल की बातें कर सकूं ,
अपनी कविता सुना सकूं ।
सभी लोग न जाने शहर की आपाधापी में कहाँ ,
किस ओर भागे चले जा रहे हैं ,
यहाँ सभी लोग जल्दी में हैं ।
कोई ऐसा नहीं मिला जो रूककर मुझसे पूछे
बेटा ! यहाँ तुम किसे ढूंढ रहे हो ?
मैं अकेले इस भीड़ में मेरे अपनों को न जाने कहाँ ढूंढू?
कहाँ छूट गए वो लोग जो मुझे कभी खोना नहीं चाहते ?
अब डर तो इस बात से लगता है की कहीं इस अंधी भीड़ में खुद को न खो दूं ।
ये शहर है साहब ,
यहाँ समान तो बहुत मिलते हैं ।
मगर वो सुकून कहाँ मिलती जो मेरे अपनों के साथ मिलती है ।
ढूंढ रहा हूं इस भीड़ में उस शरारती को ,
मिलेगी जब न तो उसे कभी खुद से दूर जाने ही नहीं दूंगा ।
साथ रखूंगा हरपल उसे अपनी बाहों में अंतिम साँस तक ।
ढूंढ रहा हूं इतनी सिद्दत से उस नटखट परी को ,
और मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन तो उसे जरूर पा ही लूंगा ।
कोई अपनी आसमां से कबतक दूर रह सकता है ?
एक -न- एक दिन पा ही लूंगा ।
इसी उम्मीद के साथ जी रहा हूं जिंदगी इस अनजान शहर में।
