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Brijlala Rohanअन्वेषी

Tragedy

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Brijlala Rohanअन्वेषी

Tragedy

अनजान शहर में

अनजान शहर में

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इस अनजान शहर में मुझे लोग तो बहुत हैं ,

मगर मेरे अपने कोई नहीं मिले ,

जिससे मैं कुछ पल दिल की बातें कर सकूं ,

अपनी कविता सुना सकूं ।

सभी लोग न जाने शहर की आपाधापी में कहाँ ,

किस ओर भागे चले जा रहे हैं ,

यहाँ सभी लोग जल्दी में हैं ।

कोई ऐसा नहीं मिला जो रूककर मुझसे पूछे

बेटा ! यहाँ तुम किसे ढूंढ रहे हो ? 

मैं अकेले इस भीड़ में मेरे अपनों को न जाने कहाँ ढूंढू?

कहाँ छूट गए वो लोग जो मुझे कभी खोना नहीं चाहते ?

अब डर तो इस बात से लगता है की कहीं इस अंधी भीड़ में खुद को न खो दूं ।

ये शहर है साहब ,

यहाँ समान तो बहुत मिलते हैं ।

मगर वो सुकून कहाँ मिलती जो मेरे अपनों के साथ मिलती है ।

ढूंढ रहा हूं इस भीड़ में उस शरारती को ,

मिलेगी जब न तो उसे कभी खुद से दूर जाने ही नहीं दूंगा ।

साथ रखूंगा हरपल उसे अपनी बाहों में अंतिम साँस तक ।

ढूंढ रहा हूं इतनी सिद्दत से उस नटखट परी को ,

और मुझे पूरा यकीन है कि एक दिन तो उसे जरूर पा ही लूंगा ।

कोई अपनी आसमां से कबतक दूर रह सकता है ? 

एक -न- एक दिन पा ही लूंगा ।

इसी उम्मीद के साथ जी रहा हूं जिंदगी इस अनजान शहर में।



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