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@Aaradhya Ark

Abstract Crime Thriller

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@Aaradhya Ark

Abstract Crime Thriller

ऐसे कैसे सबको छले

ऐसे कैसे सबको छले

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बारहा चलती है नफरतों की आँधियाँ,

दीप तो दिल में प्रेम के ही जले!

जो कि बुझते नहीं हैं कभी,

क्योंकि हृदय से हैं ये निकले!


जब उड़ें न्याय की धज्जियां,

और रक्षक यहाँ दुष्ट हो!

सज्जनों को सताकर बहुत,

हो रहा आज जो संतुष्ट हो!


घेर लेंगी उसे व्याधियाँ,

अंत में रह जाएंगे हाथ अपने मले!

दाल उसकी गलेगी नहीं,

क्योंकि जनता समझती है इनके चोंचले!


बेबसी में बहुत जी लिया,

इस तरह से कहाँ तक चले!

जो गईं खूब पढ़- लिख यहाँ,

जुल्म क्यों वे कभी भी सह लें!


दया संवेदना लुट गई,

आस्था कौड़ियों में बिक चले!

तिकड़मों का चला दौर अब, है

व्यवस्था उसी पर छले!


झेलते लोग बरबादियाँ,

बात सबको बहुत यह खले!

है बदलता सभी का समय,

क्योंकि अब कोई ना फिसले!


आज पदवी जिसे मिल गई,

खूब पैसा कमाने लगे!

वह न समझे किसी को कभी,

ऐंठ का भाव उसमें जगाकर जले!



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