अहंकार मुक्त, प्यार युक्त
अहंकार मुक्त, प्यार युक्त


अहंकार की भीषण अग्नि, फैल गई चारों ओर
मैं बड़ा बाकी सब छोटे, देखो यही मचा है शोर
इक दूजे को कुचलने में, आता सबको आनन्द
मरने मारने का हर कोई, करता जा रहा प्रबन्ध
औरों को मारकर यहाँ, हर कोई चाहता जीना
मानुष मन हुआ मैला, बुद्धि से हो गया कमीना
अपने स्वार्थ के लिए, दूजों को दांव पर लगाता
भ्रष्ट कर्म करके खुद पर, पाप का बोझ चढ़ाता
इन्द्रियों के सुख के प्रति, इतना आतुर हो गया
कुम्भकर्ण समान वो, अज्ञान की नींद सो गया
विनाशी सुख ही कहलाता, इन्द्रियों की गुलामी
इन्द्रियों की गुलामी से, बनते क्रोधी और कामी
होश नहीं रहता फिर उसको, करता जाता पाप
लग जाती उस पर फिर, पतित आत्मा की छाप
ऐसी दूषित छवि को सुधारना, होता है मुश्किल
घिनौने पाप करने वाला ही, मरता है तिल तिल
नहीं मिल पाता उसको, अपनों का भी सहारा
सुख से नहीं हो पाता, उसके जीवन का गुजारा
ये कैसा जीवन है जो, आज का इंसान जी रहा
कोई होते खुश यहाँ, कोई खून के आंसू पी रहा
कहाँ छोड़कर आए हम, रहम भरी वो भावना
क्यों नहीं कर पाते, एक दूजे प्रति शुभ कामना
अपने ही अहंकार में, क्यों इतना हम डूब गए
अपने ही स्वार्थ वश, क्यों अपनों को भूल गए
याद करो जब करते थे, एक दूजे का सत्कार
आपस में पहनाते थे सदा, स्नेह पुष्पों के हार
सबका सम्मान करना था, अपना निज संस्कार
कोई नहीं था पराया, हम करते थे सबको प्यार
आओ फिर से खुद में, हम वही संस्कार जगाएं
अहंकार भुलाकर हम, सबको दिल से अपनाएं
प्यार से बंजर दुनिया में, हरियाली फिर से लाएं
प्यार करके सबको, संसार में खुशहाली फैलाएं
अपने मन को प्यार से, नहीं रखना अब खाली
बनायें सारी दुनिया को, प्यार से भरपूर निराली!