सुख ही बरसेगा
सुख ही बरसेगा
मैंने स्वयं को देखा, जब होकर पूर्ण अव्यक्त
मेरे सम्मुख मेरे ही द्वारा, प्रश्न हुआ ये व्यक्त
धन कमाने के पीछे, मैं इतना क्यों आसक्त
आत्मशुद्धि में क्यों मेरा, बीत ना पाता वक्त
अच्छे जीवन के लिए, आवश्यक होता धन
लेकिन इसके पीछे मैंने, त्याग दिया भजन
गुम हुई शांति, जब से धन का लोभ जगा
इसी धन के लालच ने, मेरा सुख चैन ठगा
औषध तुल्य जब कोई, चीज काम में आती
जीवन में तभी वो चीज, सुखदाई कहलाती
आत्मज्ञान की नगण्यता, विकारों में फंसाती
दुखदाई सुख के भ्रम में, पूरा हमें उलझाती
हर सांसारिक इच्छाएं, मन में घोलती जहर
शांत ना होने देती मन को, ये आठों ही प्रहर
इनके पीछे दौड़ने वाला, दीनहीन कहलाता
दुखों के सागर में वो, हर जन्म गोते लगाता
मन में जगी इच्छाएं, ज्ञान का शत्रु कहलाती
सारा विवेक मिटाकर, मनोरोगी हमें बनाती
हर इच्छा के विरूद्ध, दिखा जीतकर दंगल
आत्म शुद्धि से आएगा, तेरे जीवन में मंगल
अपने आत्मस्वरूप का, करते रहना चिन्तन
इच्छाओं से मुक्ति का, करना मन में मन्थन
सर्वगुण सम्पन्न आत्मा, सुन्दर ही कहलाती
उसके जीवन में दुख की, लहर नहीं आती
गुण सौन्दर्य से होगा, जीवन का मुल्यांकन
सुख ही बरसेगा इनसे, तेरे हृदय के आंगन।