अहम् फैसला
अहम् फैसला
बात अक्टूबर माह की है ये, जिसके चार महीने पहले था जून।
डेंगू पीड़ित साथी के लिए हमारे, दान हम मित्रों को करना था खून।
लखनऊ-मेरठ जाना था कुछ को, कुछ को पटना और मनाली था।
परिजन देख रहे थे रास्ता सबके, आने वाला त्यौहार दीवाली था।
ना जाने का निर्णय करने का, सब पर ऐसा असर हुआ।
सबके चेहरे श्वेत हो गए, लगा साॅंप था उनको सूॅंघ गया।
दान रक्त का करने से कुछ दिन तक कमजोरी यह जाएगी।
रक्तदान करने वाले साथी की तो यात्रा, स्वत: रद्द हो जाएगी।
मात-पिता और बीवी-बहना, सब कर रहे थे बेसब्री से इंतजार।
रुकना चाह न रहा था कोई, सब के सब थे जाने को बेकरार।
सोच रहा था मन ही मन मैं, दीवाली तो हर साल ही आएगी।
सब जो चले गए हम साथी, मित्र की हालत तो बिगड़ती जाएगी।
ना जाने का निर्णय हममें से, दो को तो हर हालत में करना होगा।
नहीं त्यागना इस हाल में साथी, त्याग परिजन मोह करना होगा।
रक्तदान मैं करके मैं प्यारे, साथ इसके यहीं रुक ही जाऊंगा।
तुम में से कोई भी एक रुक जाओ, सिर्फ यही तो मैं चाहूॅंगा।
हम दो भाइयों में से ये छोटा, अब संग तेरे रुक जाएगा।
भाभी-बच्चे हैं बाट जोहते, बड़ा भाई घर त्यौहार मनाएगा।
बाकी साथी बीवी वाले, घर पर जाकर त्यौहार मना लेंगे।
हम दोनों तो क्वारे ठहरे, यहीं खील - खिलौने खा लेंगे।
बाकी साथी करेंगे पूजा, शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की करें दुआ।
निश्चिंत होकर तुम सब घर जाओ, बस अब तो तय यही हुआ।
तुम त्यौहार मनाओ घर पर, हम तीनों अस्पताल में त्यौहार मनाएंगे।
परमात्मा की तो यही है इच्छा, हम मित्र धर्म निभा सुख पाएंगे।