स्वप्न-परी
स्वप्न-परी
आज एक बहुत अनमोल मुस्कराहट देखी,
सदियों बाद कोई स्वप्न परी जागृत देखी,
चीथड़ों मे लिपटी हुई,सड़क पर खोजती हुई,
मतलब नहीं इस जहॉं से,आती है वो वहॉं से,
जहॉं दूर दूर तक को़ई सुख सुवि़धा नहीं,,
रहने को घर खाने को अन्न का दाना नहीं,
पन्नी में लिपटी टपकती बहुत छोटी सी गुमटी है,
इस बारिश में वो वहीं पर किसी तरह सिमटी है,
छाता लिये बच्चों को स्कूल आता जाता देखती,
थोड़ी देर ठहरती फिर छप छप पानी में कूदती,
उसकी उनमुक्त हंसी करती है स्तब्ध मुझे,
उसकी बेफ्रिक जिंदगी चिढ़ाती है मुंह मुझे,
बारिश में कार में बंद मैं देखती हूं आजाद जिंदगी,
सोचने पर मजबूर करती वो जिंदगी है या ये जिंदगी,
खुशियॉं किसके पास हैं मैं खुश हूं या वो खुश है,
इक इक पल खुशी तलाशती मेरी रूह नाखुश है,
कस्तूरी सी वो खुद की खुशबू से ही अंजान सी थी,
वो यहॉं की नहीं शायद परियों के जहान से थी,
मृगमरीचिका सी पास आना ही नहीं चाहती थी,
अपनी मुस्कुराहट से अपनी नापसंदगी जतलाती थी,
मैं उसको देखती निश्छल मासूम हंसी के साथ,
पर बढ़ा नहीं पाती थी संकोचवश अपना हाथ,
रह रह मैं उसके जैसी बन जाने के ख्याल में खोती,
कुछ छूटता या कुछ टूटता बेफिक्र हो मैं ना रोती,
पर यह क्या ..क्या मेरे भीतर पनप रही है द्वेश भावना,
सब कुछ तो है मेरे पास फिर भी नहीं कर पाती सामना,
वो चीथड़ों में भी कला की देवी सरीखी लगती है,
उसके अंदर की मासूमियत चेहरे से उजागर होती है,
एकाएक ही मुझे कुछ अपनी ओर खींचता है,
कुछ अंर्तमन में उठता हुआ विचार झिझोडता है,
सहसा ही मेरे कदम चल पड़ते हैं आकर्षित से,
बारिश की बूंदों में तन मन दोनों हो रहे पवित्र से,
ठिठक कर वो एक पल को मुझे आश्चर्य से देखती,
मैं उसमें वो मुझमें विलीन हो जिंदगी को जीती,
कोई फर्क नहीं जान पड़ता है उसमें और मुझमें,
उस पल का आनंद सिमट आता है अंर्तमन में,
जिस पल को जी भर जी लिया वही जिंदगी है,
वर्ना जीवन जीने की बस रस्म अदायगी है !