निहत्थे कृष्ण
निहत्थे कृष्ण
बढ़ रहा ताप गहरी धरा का घटता नहीं संताप,
आह! आज ये फिर किस भूकम्प की है थाप,
सुनो केशव ! मन हो रहा ना जाने क्यों विचलित,
गहन निद्रा को त्यागो हो जाओ जरा सुसज्जित,
क्यों मंडरा रहा आज अमावस का काला साया है,
क्या तनिक भी भान नहीं स्याह तमस समाया है,
मुस्करा कर उठे कन्हैया सुन धरा की ब्याकुल आह,
देखा समक्ष खडे अर्जुन को भॉप ली मन की थाह,
तभी दुर्योधन तमक कर बोला मैं भी हूं देख इस पार,
मैं खड़ा हूं सिरहाने तो प्रथम करूंगा मैं ही ब्यापार,
केशव मुस्करा कर बोले बोलो आने का क्या है प्रयोजन,
युद्ध शुरू होने ही वाला है साथ चाहिये बोला दुर्योधन,
बोलो क्या मॉंगते हो दोनों सेना या निहत्थे मुझको,
सारी सेना मुझे दे दो अर्जुन तो बस चाहे तुझको,
करबद्ध अर्जुन खड़े रहे बस पॉंव तरफ शीश झुकाये,
हे माधव कैसी यह लीला हर तरफ जब तुम हो समाये,
क्या करूंगा बाकी सब माया सोच मन में अर्जुन मुस्काये,
अपनी विजय पर खुश दुर्योधन सोचे रण तो गया मैं जीत,
ये निहत्थे कृष्ण को लेकर अर्जुन होगा मुझसे भयभीत,
चला धमक कर अहम को लेकर कान्हा बोले तथास्तु,
हे स्वामी जब साथ आपका तो पार्थ नहीं चाहता वस्तु,
आप सारथी जो होगे मेरे यहॉं वहॉं सब पार हो जायेगा,
भवसागर से पार करोगे यह संसार तो नष्ट हो जायेगा,
मुझे पता है तुम निहत्थे होकर भी मुझे हारने ना दोगे,
समस्त ब्रह्मांड के पालनहारी कैसे अन्याय को होने दोगे,
हे पार्थ! सत्य की राह बड़ी विकट है कठिनाई से भरी हुई,
मुझे वो लोग पसंद हैं जिन्होंने अपितु इसके यह राह चुनी,
मैं तो कर्म अधीन हूं निश्छल प्रेम से जिसने मुझे चाहा,
सहायता हेतु तत्पर हो जाता हूं मैं प्रेम से जिसने पुकारा,
रण तो अब हो कर रहेगा घट भरा पाप का डोल रहा,
मुक्त करना है धरा को पट अब नाटक का खोल रहा,
जब जब बढ़ जाता है पाप मुझको तो आना ही होता है,
पापियों का करने सर्वनाश मुझको कर्म साधना ही होता है !
