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Dr. Anu Somayajula

Abstract

4  

Dr. Anu Somayajula

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अहिंसक

अहिंसक

2 mins
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प्रिय डायरी


"अहिंसक"

यही नाम दिया था पिता ने,

मानो, पुत्र की शापित नियति को

खुला आह्वान दिया था।


प्रति दिन-

मेधावी, आज्ञाकारी पुत्र को देखते,

भविष्यवाणी पर

संदेह करते।


गुरुकुल में भी

गुरु का परम प्रिय,

असीम स्नेह का पात्र,

किंतु त्रिकालदर्शी गुरु

यदा कदा रहते चिंतित


ज्ञात थी

अहिंसक की कठोर नियति,

उसकी परिणति भी,

और श्राप का उपश्रमण भी।


गुरु दक्षिणा चाही

विचित्र, विनाशकारी,

‘सहस्र मानवों के अंगुलियों की’

परोक्ष में-

‘नरबलि’ का ही आदेश !


अहिंसक हतप्रभ,

मेधा, प्रज्ञा, विद्या पर

नियति की निर्मम, मलिन छाया पड़ी।

किंतु -

गुरुदक्षिणा के वचन में बद्ध

बढ़ चला विजन की ओर।


उसका भी मन रोया

प्रथम हत्या करते,

हाथ भी कांपे

हथियार उठाते,

किंतु वचन से बंधा, रुका नहीं

एक अंगुली काटी

फ़िर दूसरी, फ़िर तीसरी

जुड़ती गईं गलमाल में

अहिंसक से “अंगुलीमाल” बना।


होते- होते मानव पर दानव हावी हुआ

बस एक अंगुली और-

फ़िर गुरुकुल जाता,

दक्षिणा अर्पित करता,

और निकल पड़ता प्रायश्र्ति के पथ पर !

 

कोई भी पथिक अब उस वन में

न जाता

एक श्रमण को आता देख

उत्साहित हुआ,

फ़िर अचंभित-

यह डरता नहीं, पलायन करता नहीं !


मुझसे कहता है-

“तुम डरो नियंता से”

श्रमण बोला- मुझे मारो,

अन्यथा मातृहत्या के पात्र बनोगे

एक वही है जो अभी

इधर को आ रही है।


श्रमण ने अंगुलीमाल को पेड़ से

एक पत्ता तोड़ने और

फ़िर जोड़ने का आह्वान दिया,

‘असंभव’ दस्यु बोला

बस एक ही प्रश्न-

तुम जोड़ नहीं सकते तो

तोड़ते क्यों हो ?


दे नहीं सकते

जीवन लेते क्यों हो ?

अंगुलीमाल श्रमण के

चरणों में जा पड़ा

नहीं जानता था

वह “तथागत गौतम” के चरणों में था।


सदियों से भटक रहे हम

अपने- अपने घन, वन- विजन में,

अपनी हिंस्र प्रवृत्तियों की झोली लिए-

किस गुरु के लिए हैं

दक्षिणा बटोरते ?


इतने निर्लज्ज हुए कि

अब हम ग्लानि भी नहीं करते

अपने निकृष्ट कर्मों की

जाने कब हमारा श्रमण आएगा।


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