अबला नारी की पीड़ा
अबला नारी की पीड़ा


वीरों की रणभूमि पर
आज बसेरा है, हैवानियत का
बाजारों और गलियों में
बाजारों और गलियों में
डेरा है, अब हवस के परिदों का
आते हैं, ये परिदें जब
आते हैं, ये परिदें जब
मासूम लड़कियों के शिकार को
चारो ओर छा जाता है, सन्नाटा
तब ना आता है, कोई बचाने को
ना आती हैं, शर्म इन दरिदों को
दुर्योधन बन कर छलनी कर देते हैं
मासूम की उस देह को
ना जाने कौनसी हैवानियत सी छा जाती हैं,
उस वक्त माँ की कोख भी याद ना इनको आती हैं,
अब तो ईश्वर भी पछता रहा हैं,
मेरी बनाई इस सुन्दर सृष्टि में
मानव अब गिद्ध बनता जा रहा हैं,
फिर आती हैं, जब कानून की बारी
कानून के दरवाजे पर दस्तक जब तक होती हैं,
तब तक औरत की इज्जत ही बिक जाती हैं,
मजबूर और लाचार बाप की सुनवाई
कि
सी अदालत में ना हो पाती हैं,
तारीख पर तारीख ही मिलती चली जाती हैं,
रिश्वतखोरों के बाजार में
रिश्वतखोरों के बाजार में
एफ. आई. आर की फाइल फिर दबती ही चली जाती हैं,
हैवानियत के इस काल में
ऐसे वो जीती जा रही हैं,
सवेरा हो या हो शाम की हलचल
या हो रातों का सन्नाटा
ड़र और खौफ की घटा उस पर मंडराती रहती हैं,
वीरों की रणभूमि पर
हैवानियत शोर मचाती जा रही हैं,
लेकिन अब
ना हुई है यहाँ खत्म कहानी
अब तो है इंसाफ की बारी
लड़नी है अब हक़ की लड़ाई
बस मन में यही है, ठानी
हवस के इन दरिदों के अत्याचार को अब ना सहना हैं,
प्रतिशोध की ज्वाला बन कर
हर रावण को जलाना हैं,
झाँसी की रानी बन कर
समाज की हर नारी को बचाना हैं।
जय हिंद