आविष्कार
आविष्कार
सपनों की उड़ान भरने चले
हाँ कुछ नया रचने चले।
क्या अंजाम होगा इसका
इसकी परवाह किए बिना चले।
तरक्की कर ली माना बहुत
उसकी कीमत अदा कर चले।
साँस लेते थे शुद्ध हवा में कभी
आक्सीजन की कमी अब कर चले।
आविष्कारों की किरणों के कारण
जीव अपनी जान न्यौछावर कर चले।
कब समझेंगे दौलत की हवस के तले
अपनों की जान दाव पर लगा चले।
कोरोना तो बस एक उदाहरण मात्र है
जाने कितनी गंदगी हम तुम फैला चले।
रेडिएशन के इस दौर को हम लोग
तरक्की का एक हिस्सा मान कर चले।
जाने कब ऐसी सुबह आएगी
अंधियारे को मिटा सके जो।
आँखों पर पट्टी बाँध जी रहे
उनकी रोशनी लौटा सके जो।
- शिल्पी गोयल (स्वरचित एवं मौलिक)