आरज़ू ये मेरी !
आरज़ू ये मेरी !


एक कहानी है, बेरंग सी, बेहया सी
आबरू को नीलाम करने की
बंधिशो में रहने की
सोहबत भी बस जिस्म की।
ख़रीदना बेचना तो सिलसिला सा था
खूद को बाज़ारू कहलाना ही रीत सा था।
मुसलसल चल रहे इस रास्ते पे
एक ठहराओ ज़िंदगी की जुस्तजू थी।
पाप किए थे या कर रही हूँ
आबशार सा अश्क बहा रही हूँ
किसी के आने पे बस
जिस्म का रिश्ता निभा रही हूँ
हाँ एक डरावना सपना
बदचलन सा जी रही हूँ।
रूह की तलब किसे नहीं हैं
रिश्ते भी अब बिके है
शिकस्त भी तो तभी मिली
जब मेरे महबूब ने मुझे रेत समझ
मुट्ठी में भर यहाँ फ़ेक दिया।
ख्वाहिशें उड़ने की तो थी
मगर रेत सी नहीं चिड़िया बनकर
जिस्मानी तौर पे बंदुआ बना
वो सियासी मुझे खूद से छिनकर
नयी विलादत से मुझे मुख़ातिर किया।
अब आरज़ू बस इतनी सी है-
भीतर दबे दर्द को अब फ़तेह के किनारे लाना है
मेरे कोख में पल रहे किसी के शहवत को
इस बेरंग दुनिया से दूर, एक रंगीन दुनिया
का सूरज दिखाना है
बेदख़ल अपने दर को कर
बेधड़क खूद को नन्ही सी जान में पाना है।