आज भी मिलता ज़रूर हूं
आज भी मिलता ज़रूर हूं
फुर्सत के लम्हों में जब मैं खुद से
मिलता हूं
तेरे लिये कुछ लिखता ज़रूर हूं
मुस्कानों से कोई रिश्ता तो नहीं
फिर भी मुस्कुराते दिखता ज़रूर हूं
मुरझाये हुए को एक अरसा बीत गया
तेरी याद से थोड़ा खिलता ज़रूर हूं
जिन रिश्तों पे कभी तू था साथ मेरे
उन रिश्तों से आज भी मिलता ज़रूर हूं
किनारे बैठकर इश्क झील के अकेले
तन्हाईयों के पत्थर फेंकता ज़रूर हूं
वक्त के शीशे से धूल साफ कर
तेरा चेहरा माहताब सा देखता ज़रूर हूं
दिल के आंगन में सपनों के टुकड़ों पर
मैं सब्र का झाड़ू फेरता ज़रूर हूं
मैं लोगों से ग़म अपना बताता नहीं
खुद से तेरी छेड़ता ज़रूर हूं
सच तो यह है कि आज भी
तेरे वापस आने का रास्ता देखता ज़रूर हूं