आज भी देखता हूँ जब भी
आज भी देखता हूँ जब भी
आज भी देखता हूँ जब भी मैं अपने चारों ओर
एक अजब सी कशिश मुझे लगती है जाने क्यों ?
माना की आज़ाद हो गये हम फिर भी एक लाचारी है
इस प्यारी मातृभूमि को सींचा जिन वीरों ने है
आज उसी मिट्टी में जाने क्यों लगती दुर्बलता है।
कहाँ खो गया कीर्तिमान वो इस गौरव गाथा का
राजनीति के तले दबा अपना प्यारा सा देश।
माना कुछ कमी है लोगों में पर
कुछ कमी भी इस मन की है।
स्वर्णिम भारत रचा इतिहास था जो,
आज अस्त हो गई इसकी किरणे है
अस्त हो गए माली इसके जिसने प्राणों से
इसको सींचा था, संग में अस्त हो गई
इसकी वो हरियाली माला सी।
नमन है मेरा कोटि- कोटि उन वीर साहसी भक्तों को,
जिनके प्राणों के सौदे से हम खिलखिलाते है हर सुबह।
कुछ कहना चाहता हूँ इस दुनिया से मैं
अपने भाषा के फूलों से,
मिलकर फिर से वापस ले आएं
उस पुनर्युग स्वर्णिम भारत को।
आज भी देखता हूँ जब भी मैं अपने चारों ओर।