मैं
मैं
मैं रूपी इस खोल से तू,
उस मैं रूपी चादर में जा
अहंकार तू त्याग दे इसका,
परमानन्द उस सुख में जा
क्या रखा इस मैं रूपी गृह में,
तू उस मृग-चरण मैं रूपी वन में जा।
मैंने मैं से कह दिया जिस दिन,
दिव्य ज्योति दीपक हो जाऊँ।
मैं मैं करता है क्यों इतना
क्षण भंगुर इस मैं के खातिर
इतना तू उस मैं से कर,
मोह माया इस मैं में बस।
देख लिया जो उस मैं की लीला,
भूल जायेगा इस मैं की पीड़ा
छूट जायंगे मोह के बंधन
मैंने मैं से करके देख।