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Lipi Sahoo

Abstract

4.8  

Lipi Sahoo

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आगोश में....

आगोश में....

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काश! के ऐसा होता

फिसलती हुई उम्र को

हथेली में दबोच लेता


बीते हुए एक एक लम्हों को

फिर से जीने की इजाज़त मिल जाती तो

संवार ही लेता अनगिनत गलतियां


इकरार किया था मैंने

ईश्वर बन के लौटूगां

पर इंसान भी ना बन पाया


आंखों पे बांधे गुरूर की पट्टी

सौदा किया अपने ज़मीर का

बेपनाह खुशी के तलाश में


एक बार जो कदम फिसला

दल दल में धंसता ही गया

निकल ने की हर कोशिश

नाकामियाब रही


चाहते तो तुम रोक सकते थे

शायद ये तुम्हारे उसूलों के खिलाफ होता

चुपचाप खड़े तमाशा देखते रहे


ताउम्र म्रुगतृष्ना के पिछे भागती रही

मुझे क्या पता था

आनंद की परिभाषा सिर्फ़ तुम ही हो

 

अब तो शाम ढलचुकी 

अंधेरा छाने वाला है

हर आहट पे लगे तू दस्तक देनेवाला है 


बीना मदारी के ख़ूब करतब दिखाया

झूठी तारीफें बेशुमार बटोरे

थक कर नींद के आगोश में लिपट जाना चाहता हूं ।


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