आभास.....
आभास.....
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आभास भी खुद का होता है
धड़कन भी सुनाई देती है,
कहीं आस पास ही होती है,
लेकिन ना दिखाई देती है
स्त्री अस्तित्व की ख़ुशबू
जो जीवन महकाए देती है,
खुद की वो पहचान,
मुसीबत में ही होती है,
कहीं आस पास ही होती है
लेकिन ना दिखाई देती है।
खुशी के पिटारों को
खुलने ही नहीं देती है ,
आईने में देख खुद को
मुस्कुराने नहीं देती है,
कहीं आस पास ही होती है
लेकिन ना दिखाई देती है।
दबी हुई सी अधूरी ख्वाहिशें
अपने होने का सबूत देती हैं
अपनों की भीड़ में फिर
गुमनाम हो जाया करती है,
कहीं आस पास ही होती है
लेकिन ना दिखाई देती है।
बचपन की वो मुस्कान
छूपम छूपाई खेलती है,
बिन मुस्कुराए भी अब
शाम हो जाया करती है
कहीं आस पास ही होती है
लेकिन ना दिखाई देती है।
कहीं आस पास ही होती है
लेकिन ना दिखाई देती है।