समझ से परे
समझ से परे
मेरी एक बचपन की सहेली है गगन, अभी तीन दिन पहले ही उसने मुझ से झगड़ा किया है कि मैं लिखने और फेसबुक पर इतना व्यस्त हो गई हूं कि उस पर ध्यान नहीं देती।
बारहवीं कक्षा तक तो स्कूल में ही मिलना-जुलना होता है सहेलियों से अधिकतर, क्योंकि तब इतना किसी के घर आने जाने की अनुमति नहीं होती थी।
12 वीं के बाद कॉलेज शुरू होने के बीच एक लंबा अंतराल आया। उस दौरान सहेलियों से मिलने घर का आना जाना शुरू हुआ।
मैं गगन के घर जब भी जाती उसकी दादी मुझसे मिलने आती, साथ बैठकर बातें करती कुछ देर। धीरे-धीरे उनका लगाव मेरे लिए बढ़ता गया। फिर मैं जब भी जाती तो सबसे पहले दादी जी के कमरे में जाती, उनसे बातें करती वह बड़े प्यार से मुझे गले लगाती, बहुत आशीर्वाद देती। कभी-कभी रामायण सुनाने को कहती मैं थोड़ी देर पढ़ के सुना देती।
जब कभी मेरा उसके घर जाना पहले से तय होता तो मेरे आने तक दादी जी कई बार पूछती, 'शालिनी आई क्या?' मैं हमेशा समय से ही पहुंचती थी। एक दिन थोड़ा देर हो गई तो गगन बोली, 'दादी सात-आठ बार तुमको पूछ चुकी है...' मैं सीधा दादी के कमरे में गई तो वह दुखी मन से बोली, 'मुझे लगा आज तू नहीं आएगी...' मैंने बोला, 'अरे दादी कहा था तो आती कैसे नहीं।'
यह डायलॉग आज तक मेरे और मेरी सहेली के बीच चलता आ रहा है कि, 'ऐसा कहा था तो करती कैसे नहीं।'
किशोर मन की चंचलता और इतनी सारी बातें मन में इकट्ठा होती थी करने के लिए कि कई बार मन करता पहले सहेली से बातें कर लूं।
एक बार अचानक मैं पहुंची तो वह बोली, 'दादी सो रही थीं थोड़ी देर पहले।' तो मैं बातें करने में रम गई, दस मिनट बाद दादी बच्चों जैसा मुंह लाल किये आईं बोली, 'मुझे लग रहा था कि शालिनी ही बोल रही है पर आई क्यों नहीं इधर मेरे पास।' तो कितनी देर उनको समझाना पड़ा कि ऐसा नहीं वैसा।
शादी के बाद जब पहली बार पति के साथ गई तो दादी ने पति को पहले गले लगाया मुझे बाद में तब मैंने मुंह बनाया दादी बोलीं, 'अरे अब तुझे यही खुश रखेगा तो तुम्हारी खुशी के लिए हम को इसको ज्यादा मान देना है।'
हम सुबह के लगभग ग्यारह बज गए थे उनके घर और आंटी ने बारह-तेरह प्लेट नाश्ता लगाया। मैंने कहा, 'क्या है? इतना सब कुछ...' आंटी बोली, 'मैं जानती हूं तुम्हें फॉर्मेलिटी पसंद नहीं है। पर तुम्हारी दादी को कौन समझाए पहली बार जमाई आ रहा है तो खूब खातिरदारी होनी चाहिए। यह भी हो वह भी हो अभी तो तीन-चार तरह के और नाश्ते थे फिर मैंने ही नहीं रखे।'
मैं सूरत रहने लगी तो वर्ष में दो-तीन बार ही दादी से मिलना हो पाता था जब मैं मम्मी के घर जाती थी।
दिसंबर 2006 की एक शाम जब मैं चाय बना रही थी मुझे किसी अदृश्य शक्ति ने पीछे मुड़ने को मजबूर किया। मैं अचानक पीछे मुड़ी तो मुझे लगा कुछ दूरी पर दादी जी खड़ी है ग्रे रंग के कपड़े पहने उसमें काले रंग का छोटा-छोटा प्रिंट है। मैं तुरंत मम्मी को फोन किया और बताया कि मम्मी ऐसा ऐसा हुआ है। मम्मी बोलीं कहीं, 'दादी बीमार न हो अभी तुम्हारे भाई को भेजती हूं फिर तुम को फोन करके बताती हूं।' पांच मिनट भी नहीं बीते होंगे कि मम्मी का फोन आ गया की, 'अभी गगन का फोन आया था दादी जी का स्वर्गवास हो गया है।'
जब मेरा मम्मी के घर जाना हुआ तब दादी जी के लिए शोक करने सहेली के घर भी गई, आंटी ने मुझे मृत्यु के एक दिन पहले का फोटो दिखाया दादी ने वही कपड़े पहने थे जिन कपड़ों में मैंने उनको देखा था।
आज तक मेरे मन में एक सवाल है कि क्या दादी ऊपर जाने से पहले मुझसे मिलने आई थी।