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V. Aaradhyaa

Abstract Drama Tragedy

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V. Aaradhyaa

Abstract Drama Tragedy

कांच की हरी चूड़ियाँ (भाग- 1)

कांच की हरी चूड़ियाँ (भाग- 1)

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"वाह...भगवती ! तू सच में बड़ी भागों वाली है री ! देख ना कैसा सजीला दूल्हा मिला है तूझे। और देखना... तेरी मेंहदी भी खूब गाढ़ी रचेगी !"

कुसुमलता ने अपनी चचेरी बहन भगवती को मेंहदी लगाते हुए उसे छेड़ा तो भगवती लाज से एकदम लालबहुटी सी बन गई।

"धत्त... दिदिया... तुम भी ना मुझे छेड़ती रहती हो। हमने तो उन्हैं ठीक से देखा भी नहीं। औऊर कैसे पता लग गया तुमको कि ऊ हमको बहुतै ही प्यार करेगें !"

"आहे... हाए... सूरत तो देखौ बिहुनी के... ! कैसे शर्माए रही है। अब तो मेंहदी रचेगी जी... खूब रचेगी... !"

बोलकर कुसुमलता जोश में बाकी बहनों के साथ मालिनी अवस्थी की तरह सुर की टेर लगाकर शुरु हो गई।

"पिया... मेंहदी मंगा दा मोती झील से... ! "

उसका कंठस्वर ऊंचा तो था ही। सुर भी बिल्कुल सधा हुआ था।

सो... गीत शुरु करते ही रिश्ते की बहनें और हमजोली सखियां दौड़कर आकर उन्हें घेरकर बैठ गईं और सुर मिलकर गाने लगीं।

इधर लड़कियों के गाने की टेर से तुलसी चाची का आंगन गूंज उठा तो उधर बिटिया को दूर से नज़र भर देखकर तुलसी चाची देवता गुहारने लगी।

भर आई आँखों और गदगद हृदय से इतना ही बोल पाई कि,

"हे... भोले भंडारी... हे पार्वती मैया ! हमरी ई भोलिया के जोड़ लगाए रखना। हमरी तरह ऊ का अभागीन मत बनाना परभु !"

ममतापूरित उन आंखों से कुछ बूंदे गालों पर लुढ़क आईं जिसे आज तुलसी ने पोछने का कोई प्रयास नहीं किया। बस बहने दिया।

आज उसे अपने पति बलराम की बहुत याद आ रही थी।

"अगर आज ई भगवतिया के बाबूजी जीवित होते तो कितने खुश होते !"

सोचकर मन ही मन बलराम को अपने बगल में खड़े होने की कल्पना मात्र से खुशी से चिंहुक पड़ी तुलसी।

और... अपनी आंखों को कसकर मींच लिया। जैसे कि... अगर आंखें खोल दीं तो बलराम आंखों से ओझल हो जायेगा।

वैधव्य के पूरे सत्रह साल बिताने के बाद भी आज तलक तुलसी अपने सहचर के बदन की गंध कहां भूल पाई थी...?

अढ़ाई साल की शादी मधुमास की तरह हर दिन और उसके बाद जेठ की दुपहरी की तरह तपते रेगिस्तान से यह सत्रह साल... कैसे एक एक दिन कटे यह या तो तुलसी का हृदय जानता था या उसकी भगवती मैया।

उसे अपनी कुलदेवी भगवती मैया पर इतना विश्वास था। तभी तो उसने अपनी बेटी का नाम भी देवी के नाम पर ही रखा था... भगवती ... !

और आज... उसकी भागो... उसकी लाडो... उसकी भगवती के ब्याह का समय भी आ पहुंचा था।

एक मां के लिए इससे खुशी की बात और क्या होगी कि उसकी बेटी को अच्छा वर और अच्छा घर मिला था।

बगल के तहसील पिरश्यामनगर के जमींदार के खासमखास थे, त्रिपुन्ड पाठक। उनके आसपास के इलाके में बड़ा नाम था। उन्हीं के बड़े सुपुत्र गोविन्द पाठक से तय हुई थी तुलसी और बलराम की भोली भाली, खूबसूरत सी बेटी भगवती की।

ब्याह तय होने के बाद उन्होंने कितनी बार तो अपनी बेटी की किस्मत को सराहा था। और उसकी नज़र उतारी थी।

गोविन्द पढ़ा लिखा नौज़वान था। और मुखिया जी का हिसाब किताब देखता था।

कुल मिलाकर भगवती राज करेगी राज... !

सब यही कहते थे। और तुलसी भी यह बात अच्छी तरह जानती समझती थी कि उसकी बेटी की किस्मत अच्छी है और उसे अच्छा वर मिला है। बस वह उसे बुरी नज़र से बचाए रखना चाहती थी।तभी तो वह अपने इष्ट देवों का धन्यवाद कर रही थी।

इधर तमाम रिश्ते की बहनों में सबसे सुन्दर थी भगवती।

दूधिया गुलाबी रंग.. जैसे कि दूध में थोड़ा सा आलता मिला दिया गया हो। और कजरारी आंखें, सूतवां नाक और भरे भरे होंठ।

तुलसी ने हमेशा भगवती के खानपान का अच्छे से ध्यान रखा था इसलिए उसकी देहदशा भी अच्छी थी।

अभी अभी तो उन्नीसवां लगा था। पर देखने में अपनी उम्र से कुछ बड़ी ही लगती थी। पर चेहरे की मासूमियत धोखा दे जाती थी।

तुलसी को हमेशा से शौक था श्रृंगार का।

और हरे कांच की चूड़ियां तो उसे विशेष रुप से प्रिय थीं। और मेहँदी तो वह रच रच के लगाती और गोरी हथेलियाँ सबको दिखाती फिरती।

पर... इन मेहँदी और हरी चूड़ियों को वह ज़्यादा दिन अंग नहीं लगा सकी थी। शादी के पहले ही जो लगाया सो लगाया बस.... !

शादी के बाद तो सास ने जैसा घर गृहस्थी के काम में झोंका तो फिर उसे कहां तो मेहंदी का होश रहा था और कहां चूड़ियों का।और नहीं तो क्या... !

(क्रमश:)

कहानी का अगला भाग पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

हरे कांच की चूड़ियां(२)


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