जालोर की रानी जैतल दे का जौहर भाग-2
जालोर की रानी जैतल दे का जौहर भाग-2
जालोर में आज बड़ी चहल पहल थी। और हो भी क्यों नहीं आखिर विजयादशमी का दिन जो था। इस दिन हर युवा , वृद्ध, महिला पुरुष सब व्यस्त रहते हैं। नौ दिनों की मां अंबे की प्रतीक "माता आशापूरा" की पूजा अर्चना , व्रत अनुष्ठान करने के बाद और डांडिये खड़काने के बाद भी महिलाओं में थकान कहीं देखने में नहीं आती है। पता नहीं ईश्वर ने महिलाओं को कितनी ऊर्जा दी है कि नौ दिन केवल एक समय भोजन ग्रहण करने और दिन भर घर का कार्य करने पति और बच्चों की सेवा करने, रात को डांडिये संग नृत्य करने और रामचरितमानस का लगातार तीन घंटे पाठ करने पर भी वे ऊर्जा से लबरेज रहती हैं। उनके होंठ मुस्कुराते ही रहते हैं , आंखों से जीवन बरसता सा दिखता है , बातों से प्रेम का सागर छलकता है और मन में संपूर्ण विश्व की मंगल कामना का भाव रहता है। तभी तो नारी "प्रकृति मां" का दूसरा रूप होती है।
जालोर की रानी जैतल दे को घड़ी भर की भी फुरसत नहीं थी। ऐसा नहीं है कि उनके यहां दासियां नहीं थी , दसियों थीं मगर जैतल दे समस्त कार्य अपनी निगरानी में ही करवाती थीं। जरा सी भी चूक नहीं रहनी चाहिए किसी भी काम में , यही उनका मूल मंत्र था। सुबह का नाश्ता तैयार करना , वह भी नहा धोकर और पूजा पाठ कर के, बड़ा चुनौतीपूर्ण कार्य था। इसके लिए वे प्रात : पांच बजे ही जग जाया करती थीं। अपना काम करती जातीं थीं और भगवान के भजन गाती जाती थीं। उनकी आवाज भी बहुत मीठी थी। मिसरी जैसी। राजकुमार बीरमदेव को अपनी मां के मुंह से भजन सुनना बहुत अच्छा लगता था। अभी उम्र ही क्या थी राजकुमार की ? केवल 15 वर्ष। इतनी कम आयु में ही उन्होंने इतना नाम कमा लिया था कि बड़े बड़े सूरमाओं की श्रेणी में आ गये थे वे। मल्ल युद्ध हो या द्वंद्व युद्ध। तलवारबाजी हो या भाला संचालन। हर विधा में वे निपुण थे। अपने पिता कान्हड़देव की तरह। और आखिर हों भी क्यों नहीं ? अपने पूर्वज पृथ्वीराज चव्हाण के वंश में जो जन्म लिया था उन्होंने। अंतिम सम्राट पृथ्वीराज चव्हाण की पराजय के पश्चात उनके उत्तराधिकारियों की एक शाखा जालोर आकर बस गई थी और यहां पर उन्होंने अपनी रियासत बना ली थी। बीरमदेव उन्हीं पृथ्वीराज चव्हाण के नाम को सार्थक करते प्रतीत हो रहे थे।
माता आशापूरा की पूजा के पश्चात "पातालेश्वर महादेव" जी की पूजा अर्चना भी करनी थी उन्हें। विजय दशमी के दिन पातालेश्वर महादेव का मंदिर एक विशेष आकर्षण का केन्द्र होता है। यहां पर पूजा के पश्चात अस्त्र शस्त्रों की पूजा भी की जाती है। सभी प्रकार के अस्त्र शस्त्रों का प्रदर्शन होता है और फिर उनकी सामूहिक पूजा होती है।
किशोर बीरमदेव के मन में अनेक प्रश्न घूम रहे थे। ये महादेव जी पातालेश्वर क्यों कहलाते हैं ? क्या ये पाताल लोक के स्वामी हैं ? यदि ये केवल पाताल लोक के स्वामी हैं तो त्रैलोक्य के स्वामी कौन हैं फिर" ?
रानी जैतल दे जितनी सुंदर थीं उससे अधिक बुद्धिमान और ज्ञानवान थीं। उन्होने बचपन से ही बीरमदेव के मन में वीरता, साहस, मानवता , संवेदनशीलता , दया, करुणा के भाव भरे थे। बीरमदेव भी उनकी देख रेख में पल बढ रहे थे जिसकी छाप उनके आचरण और कार्यों में नजर आती थी। रानी जैतल दे ने राजकुमार को समझाते हुए कहा
"बहुत साल पहले पूरे उत्तर भारत में वर्द्धन साम्राज्य के परम प्रतापी चक्रवर्ती राजा हर्षवर्धन हुए थे। वे सोमनाथ भगवान के अनन्य भक्त थे। वे हर साल सोमनाथ भगवान के दर्शन करने के लिए वहां जाते थे। कन्नौज से सोमनाथ जी की यात्रा में बहुत समय लगता था। इस कारण एक दिन उन्होंने सोमनाथ महादेव से प्रार्थना की कि वे उनके साथ कन्नौज चलें। उस रात उनके सपने में सोमनाथ महादेव आये और कहा कि 'ठीक है मैं तेरे साथ अवश्य चलूंगा मगर ये ध्यान रखना कि रास्ते में तू मुझे कहीं पर भी जमीन पर मत रखना नहीं तो मैं वहीं स्थापित हो जाऊंगा'। राजा हर्षवर्धन ने कहा कि ठीक है भगवन। और जब उनकी आंख खुली तो उनकी गोदी में एक शिवलिंग था। उस शिवलिंग को लेकर वे चल दिये। रास्ते में रात हो गई तो वे यहां सिवाड़ में रात्रि विश्राम के लिये रुक गये। राजा हर्षवर्धन उस शिवलिंग को अपनी गोद में रखकर सो गये। उन्हें सोमनाथ महादेव की सपने वाली बात याद थी। लेकिन रात में सोते वक्त कब वह शिवलिंग जमीन से छू गया , उन्हें पता ही नहीं चला। जब सुबह आंख खुली तो देखा शिवलिंग भूमि पर रखा हुआ था। उन्होंने उस शिवलिंग को उठाने का बहुत प्रयास किया मगर वह टस से मस नहीं हुआ। राजा ने शिवलिंग के आसपास की भूमि खुदवा कर शिवलिंग को निकालने का प्रयास भी किया मगर कोई लाभ नहीं मिला। तब उनके मुंह से अनायास ही निकल गया "क्या पाताल चले गये हो , प्रभु" ? और तबसे इस शिवलिंग का नाम पातालेश्वर महादेव पड़ गया। यह शिवलिंग साक्षात सोमनाथ जी का ही प्रतिरूप है इसलिए इसकी मान्यता बहुत ज्यादा है। जालोर में तो पातालेश्वर महादेव ही सबके ईष्ट देव हैं। इनकी रक्षा के लिए हम कोई भी कुर्बानी देने को तैयार हैं। पुत्र, एक बात का ध्यान रखना कि कभी भी धीरज, धर्म, मित्र और अपनी पत्नी का साथ मत छोड़ना"। और जैतल दे ने राजकुमार बीरमदेव के सिर पर ममता के वश में होकर हाथ फिराया। राजकुमार बीरमदेव को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उनकी कुलदेवी माता आशापूरा उन्हें आशीर्वाद दे रही हैं।
पातालेश्वर महादेव में पूजा अर्चना पूरी करने के पश्चात राजा कान्हड़देव हथियारों के प्रदर्शनी स्थल पहुंचे। यहां पर नाना भांति के अस्त्र-शस्त्र रखे हुए थे। इनकी पूजा की जानी थी। बालक के मन में जिस प्रकार एक कौतुहल रहता है कि विजय दशमी के दिन हम लोग अस्त्र-शस्त्रों की पूजा क्यों करते हैं ? वैसा ही प्रश्न राजकुमार के मस्तिष्क में कौंध रहा था। रानी जैतल दे राजकुमार का चेहरा पढना जानती थी इसलिए उन्होंने राजकुमार को समझाते हुए कहा
"भगवान श्रीराम अपने पिता की आज्ञा लेकर चौदह वर्ष के लिये वन में गये थे तपस्वी बनकर। पर क्या अपने साथ वे कमंडल लेकर गये थे" ?
"नहीं"
"क्यों ? और क्या लेकर गये थे" ?
"धनुष बाण"
"क्यों" ?
राजकुमार बीरमदेव के पास कोई जवाब नहीं था। तब रानी जैतल दे ने उन्हें समझाते हुए कहा "क्षत्रिय का पहला कर्तव्य है दुष्टों का संहार करना। और दुष्टों का संहार बिना अस्त्र-शस्त्रों के हो नहीं सकता है। कहते हैं न कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते हैं। इसी तरह नीच, दुष्ट, राक्षस, आततायी आदि लोग भी केवल अस्त्र-शस्त्रों की भाषा ही जानते हैं। वे केवल ताकत के सिद्धांत में विश्वास करते हैं। "जिसकी लाठी उसकी भैंस" लोकोक्ति के अनुयायी हैं ऐसे लोग। और एक क्षत्रिय का कर्तव्य है "रामराज्य" की स्थापना करना। "रामराज्य" का मतलब है एक ऐसा राज्य जिसमें प्रजा को "दैहिक, दैविक और भौतिक" ये तीनों प्रकार के कष्ट नहीं होने चाहिए। और जब तक एक भी दुष्ट जिंदा है , तब तक क्या रामराज्य हो सकता है" ?
"बिल्कुल नहीं"
"शाबास। बहुत अच्छे। इसलिये अस्त्र-शस्त्र होना बहुत आवश्यक है। अच्छा एक बात बताओ कुमार। तुमने ऐसा कोई भगवान देखा है क्या जिनके हाथ में कोई हथियार नहीं हो" ? रानी जैतल दे ने कुमार से पूछा
राजकुमार बीरमदेव सोच में पड़ गये। उन्होंने अब तक जिन जिन भगवानों के चित्र देखे थे उन सबके हाथ में कोई न कोई अस्त्र-शस्त्र अवश्य था। भगवान शिव के हाथ में त्रिशूल, विष्णु जी के हाथ में चक्र, राम जी के हाथ में धनुष बाण, श्रीकृष्ण के हाथ में चक्र सुदर्शन है। और तो और बुद्धि और ज्ञान के देवता गणेश जी के हाथ में फरसा है , हनुमान जी के हाथ में गदा है। यहां तक कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी भी बिना हथियारों के नहीं हैं। दैत्यों और मनुष्यों ने ब्रहास्त्र के लिये कितनी पूजा की है उनकी ? उन्होंने कहा
"मां सा। मुझे तो ऐसे कोई भी भगवान याद नहीं आ रहे हैं जिनके हाथ में कोई अस्त्र-शस्त्र नहीं हो"
"बिल्कुल ठीक, कुमार। बिना शक्ति के किसी की पूजा नहीं होती है। लोग सिंह से डरते हैं खरगोश से नहीं। राज्य सिंह ही करता है हिरण नहीं। इसलिए जिंदगी का पहला नियम है कि शक्तिशाली बनो। ताकतवर बनो। ताकत है तो राज्य तुम्हारा है नहीं तो तुम एक रंक की तरह हो जाओगे। हां, ये दूसरा सिद्धांत है कि ताकत का बेजां इस्तेमाल मत करो। विशेषकर स्त्री , बालक, साधु पर तो बिल्कुल नहीं। अच्छा एक बात और बताओ"। रानी जैतल दे ने कुमार की ओर देखकर कहा
"क्या मां सा" ? कुमार ने बड़ी मासूमियत से पूछा
"चंद्रगुप्त मौर्य का नाम सुना है क्या आपने" ?
"जी मां सा। उन्हें कौन नहीं जानता ? मौर्य साम्राज्य की स्थापना उन्हीं ने की थी। आचार्य चाणक्य के मार्गदर्शन में"
"बिल्कुल सही। अच्छा, उनके पुत्र का नाम क्या था" ?
"महाराज बिन्दुसार"
"बहुत अच्छे। उनके पुत्र का नाम" ?
"सम्राट अशोक। चक्रवर्ती अशोक। अशोक महान"
"वाह ! क्या बात है। उनके पुत्र का नाम" ?
राजकुमार बीरमदेव सोच में पड़ गये। उनके पुत्र के बारे में तो उन्हें कुछ भी पता नहीं था। उसके बारे में तो गुरुजी ने कुछ नहीं बताया था। इन्कार की मुद्रा में सिर हिला दिया कुमार ने।
"अच्छा , क्या तुम्हें यह पता है कि तुम्हें सम्राट अशोक के वंशजों के बारे में क्यों नहीं पता" ?
"नहीं"
"ये अवश्य पता होना चाहिए पुत्र। एक चक्रवर्ती सम्राट जिसका राज्य अफगानिस्तान से भी आगे से लेकर बर्मा तक और सुदूर दक्षिण तक फैला हुआ था, उसके वंशजों का क्या हुआ ? इसका पता अवश्य होना चाहिए और विशेषकर राजपूतों को तो अवश्य ही होना चाहिए"
"क्यों मां सा" ?
"इसलिए कि जो गलती सम्राट अशोक ने की थी वो गलती और कोई राजा नहीं करे और सम्राट अशोक के वंशजों की तरह कहीं गुम न हो जायें"
"क्या गलती की थी सम्राट अशोक ने" ?
"बहुत बड़ी गलती की थी उन्होंने। कलिंग के युद्ध में हजारों लोगों की जान गई थी। हर युद्ध में जाती है। युद्ध में जान और माल का ही तो नुकसान होता है। इसलिए जहां तक हो सके युद्ध को टालना चाहिए। अच्छा , एक बात बताइए , जब रावण माता सीता का अपहरण कर लंका ले गया था और भगवान श्रीराम ने सागर पर सेतु बनाकर सागर पार कर लिया था और वे लंका पहुंच गये थे। तब उन्होने अपना दूत बनाकर रावण के पास किसे और क्यों भेजा था" ?
"अंगद जी को भेजा था"
"बिल्कुल ठीक। पर क्यों भेजा था ? जब वे लंका में आ ही गये थे तो अब दूत भेजने की क्या जरूरत थी" ?
राजकुमार इतने गूढ प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाये तब रानी जैतल दे बोली
"भगवान श्रीराम ने लंका पहुंच कर बालि पुत्र युवराज अंगद को इसलिए दूत बनाकर भेजा कि वे रावण के साथ होने वाला युद्ध टालना चाहते थे। वे चाहते थे कि यदि रावण सीता जी को ससम्मान लौटा दे तो युद्ध की कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी। अगर युद्ध होता तो इस युद्ध में न जाने कितने लोग मरते। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। मगर कभी कभी युद्ध आत्मरक्षार्थ भी करना पड़ता है। महाभारत के समय भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध टालने की कितनी कोशिशें की थीं। वे स्वयं दूत बनकर दुष्ट दुर्योधन की सभा में गये थे। उसे साम, दाम, दंड, भेद सब तरह से समझाया मगर दुर्योधन माना ही नहीं। और तो और अंत में तो उन्होंने केवल पांच गांव ही मांग लिये थे मगर तब भी दुर्योधन टस से मस नहीं हुआ था। तब जाकर "महाभारत" हुआ था। मेरा कहने का मतलब है कि युद्ध तभी लड़ा जाना चाहिए जब और कोई विकल्प शेष नहीं हो। पर इसका मतलब ये भी नहीं है कि युद्ध बिल्कुल ही नहीं लड़ा जाना चाहिए। एक राजा का पहला कर्तव्य है अपने राज्य की रक्षा करना। यदि किसी अन्य राजा ने अपने राज्य पर आक्रमण कर दिया है तो उससे युद्ध तो करना ही होगा। नहीं तो वह राजा हमारा राज्य हड़प लेगा। इसके लिये यानि आत्मरक्षार्थ युद्ध करना ही पड़ेगा और इसके लिए एक सशक्त सेना का होना आवश्यक है। सम्राट अशोक ने यही गलती कर दी थी। बौद्ध भिक्षु उपगुप्त की बातों में आकर और भावनाओं में बहकर उसने तलवार यानि अस्त्र-शस्त्रों का त्याग कर दिया था और बौद्ध धर्म अपना लिया था। इसके साथ ही उन्होंने अपनी सेना भी समाप्त कर दी थी। यह बहुत गलत किया था उन्होंने। जब तक वह जीवित रहा , अपने नाम और यश के कारण कोई भी राजा उस पर आक्रमण करने का साहस नहीं जुटा पाया। लेकिन उसकी मृत्यु के उपरांत उसके पड़ोसी राज्यों ने उस पर आक्रमण कर दिया। चूंकि अब कोई मजबूत और स्थाई सेना थी नहीं इसलिए मौर्य साम्राज्य का पराभव हो गया। इसलिए यह तीसरा सिद्धांत है कि एक मजबूत और दक्ष स्थाई सेना अवश्य होनी चाहिए। तुमने यह सिद्धांत तो सुना ही होगा कि "भय बिनु होय न प्रीति"। और भय कब होगा जब हममें ताकत होगी। ताकत तब होगी जब हमारे पास श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्र होंगे। और इसीलिए हम विजय दशमी पर अस्त्र-शस्त्रों की पूजा करते हैं। अब समझ में आ गया" ?
"जी मां सा। आप समझाती ही इतनी अच्छी तरह से हैं कि सब कुछ समझ में आ जाता है"
और सब लोग अस्त्र-शस्त्रों की पूजा के लिये चल पड़े।
क्रमश :