एहसास अनकहे प्यार का
एहसास अनकहे प्यार का
भीड़ से खचाखच भरा नई दिल्ली का रेलवे स्टेशन। कुछ महिलाएं, बच्चें बेंच के पास ही चादर बिछा कर हाथ पर पूरी आचार रखकर खा रहे हैं। बतिया रहे हैं, फेरी वाले अपना अलाप रहें हैं। समोसा---समोसा --पानी --ठंडा पानी.. कुछ यात्री टिकट खिड़की पर भीड़ का सामना कर रहे हैं। एक वृद्ध महिला सबसे पीछे खड़ी चिल्ला रही थी -"मुझे टिकट पहले लेने दो, मेरी गाड़ी छूट जाएगी। "
लम्बी -पतली नेहा इस भीड़ को देखकर सोचती है -" ऐसा लग रहा है सारे हिन्दुस्तान ही सफर करना है। "बातूनी नेहा, अल्हड़ मस्त बचपन मिश्रित जवानी। ग़जब का आकर्षण था उसकी आँखों में। कोई भी बिना प्रभावित हुए न रहता। देखने में सामान्य लेकिन चुंबकीय व्यक्तित्व से पूर्ण सादगी। उसकी मासूम बोलती आँखें ,नटखट हँसी भोला बचपन एक कशिश पैदा करता।
दोपहर ३ बजे अप्रैल का उमस मौसम, पर दिल में गोवा जाने उमंग लिए नेहा, राजधानी एक्सप्रेस में अपनी सीट पर पहुंचकर -"अरे आज तो पूरा डिब्बा खाली, कोई नहीं आया। अरे वाह ! पूरे डिब्बे कहीं भी बैठो या सो जाओ या डांस करो ,शोर मचाओ ,कुछ भी करो। पूरी आज़ादी। ऐसा करती हूँ सामने वाली खिड़की सीट पर बैठ जाती हूँ ,अकेली सीट है तो अन्य सहयात्रियों के आने का झंझट ही ख़त्म। "
थोड़ी देर में सभी सहयात्री अपना स्थान ले लेते हैं। लोगो की आवाजाही बढ़ जाती है। तभी युवक नेहा के सामने वाली सीट पर पसर जाता है। नेहा इन सबसे बेखबर खिड़की से बाहर झाँकने में व्यस्त है। मथुरा आगे निकलते ही मौसम सुहाना हो गया। ठंडी ठंडी हवा चलने लगी। ऐसा लग रहा था पेड़ भी ख़ुशी में झूम रहे हों। कहीं ऊँचे पेड़ तो स्वागत करते विस्तृत मैदान कही ऊँची आसमान को छूती बिल्डिंग तो कहीं कलकल बहती नदी। दूर तक फैले हरे खेत ,नाचता हुआ मोर ,तो कहीं धरती आसमान के अद्भुत मिलन का नज़ारा। तेज़ी से भागती ज़िंदगी और उस दुनिया में खोयी नेहा।
" जामुन लेंगी आप ?"नेहा की तरफ बढ़ाते हुए प्र्शन उछाला उस युवक ने। सपने से जगी नेहा ने उस शख्स को आश्चर्य से देखा, कुछ सोचते हुए -"जान न पहचान बिना बात का मेहमान। ""नहीं "आपका परिचय श्रीमान ?"मेरा नाम शास्वत है भोपाल जा रहा हूँ ,वहीं जॉब करता हूँ।
" आपको खिड़की से बाहर देखना पसंद है ?"हाँ जी
" आपको नई जगह घूमने का शौक है ?" हाँ
" आपको संगीत पसंद हैं ?" हाँ
कोन सा फनकार ? अरिजीत सिंह। ..क्यों ??
कुछ देर शास्वत को घूरती है -"मेरी मर्ज़ी "मुझे जो पसंद है, नहीं पसंद है, आपको क्यों मिर्ची लगी है। नहीं देती तुम्हारे हर क्यों का जवाब " .ऐसा कहकर बाहर देखने लगती है। शास्वत उसकी इस अदा पर मोहित हो जाता है और हँसने लगता है। नेहा गुस्से से-" हँस क्यों रहे हो ?" "मेरी मर्ज़ी "शास्वत ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया।
ट्रेन समुद्र पास से गुज़र रही है। सूर्य बादलों में छुपा हुआ था। शायद कुछ देर पहले यहाँ बारिश हुई हो। ठंडी हवा के झोंके मदहोश कर रहे थे। कहीं पेड़ो की झुरमुट, कहीं पानी का झरना , तो कही हाथ हिलाकर अभिवादन करते बच्चे नेहा का मन मोह रहे थे, उन खूबसूरत नजारों में खोयी अपने सपने बुन रही थी नेहा। ख़ुशी की चमक से उसका चेहरा प्रतिबिम्बित हो रहा था। शास्वत चुप्पी तोड़ते हुए - आप अकेली हैं यहाँ ,कोई साथ में ?"नेहा गुस्से से-" है ना ! मेरा भाई ,अगली सीट पर। "तभी ट्रेन एक लम्बी अँधेरी सुरंग से गुज़री। नेहा इस सबके लिए तैयार नहीं थी उसकी डर से चीख निकल गयी।
शास्वत -"अंताक्षरी खेलोगी " नहीं।
जानबूझकर वो गलत लाइन गाता है। टोकते हुए नेहा - एक गाना भी याद नहीं। क्या अंताक्षरी खेलोगे ?ना चाहते हुए भी नेहा उसके साथ गीत-संगीत, हँसी मज़ाक में व्यस्त हो जाती है। बीच -बीच में फेरी वाले चिप्स ,लस्सी ,पानी का राग अलापने आ जाते। शास्वत ने दो गिलास लस्सी ली एक गिलास नेहा को देते हुए -" सफर में एक अजनबी की लस्सी याद रहेगी भले ही नाम भूल जाओ। "
रुको मैं अपने भाई से पैसे लेकर आती हूँ । " नहीं रहने दो। भाई को क्यों परेशान करती हो। बाद में देना। "ऐसा कहकर वो नेहा को गिलास पकड़ा देता है। दोनों के बीच साहित्य, राजनीति और समाज की समस्याओं पर बातचीत होती रहती है.
रात के नौ बज चुके हैं। नेहा को नींद घेरने लगती है। वो अपने भाई के पास जाने के लिए खड़ी होती है। ना चाहते हुए भी शास्वत कह उठता है -मत जाओ !रुक जाओ !" नेहा एक क्षण रूकती है मुस्कुराती है और गुड नाईट कहकर चली जाती है।
अर्धरात्रि लगभग १२ बजे होगे नेहा की आँख खुलती है। प्यास के कारण गला सुख रहा था। पानी की खाली बोतल देखकर जैसे ही वो अपने भाई को आवाज़ लगाने के लिए उठती है उसकी नज़र सीट पर सोये सहयात्री पर पड़ती है. चौककर -" शास्वत तुम ! यहाँ। " मेरी सीट कन्फर्म नहीं थी ,इसलिए उस सीट के स्वामी के न आने पर टी टी ने मुझे सीट दे दी। पानी पीना है तुम्हें ? अगले स्टेशन पर रुकने पर मैं ला दूँगा। " मुस्कुराते हुए शास्वत जवाब दिया। और अपनी कहानियों में अपना चेहरा थामे एकटक नेहा को निहारने लगा। खुले लम्बे बाल ,उनपर विलायती परियों वाली कैप ,नींद से अलसाया सौंदर्य। शर्म से झुकी पलकें। एक झटके से गाड़ी रूकती है और उसका ध्यान टूटता है। वो स्टेशन से पानी लेकर आता है और नेहा को दे देता है। पानी पीकर सो जाती है नेहा।
सुबह जब शास्वत की आँख खुलती है, उसका स्टेशन आ गया था शायद। हड़बड़ाकर उठता है। उतरना था। नेहा अपनी सीट पर बैठी अखबार पढ़ते हुए उसे कनखियों से देखती है। बुझे मन से सामान पैक करता है।
नेहा को देखता है पर कुछ कह नहीं पाता। आँखों ही आँखों में विदा ले रहा हो जैसे। दोनों खामोश कोई शब्द नहीं। बिना कुछ कहे गेट की तरफ बढ़ जाता है। ट्रेन रुकने में अभी समय है। गति धीमी हो चुकी है। नेहा अपनी सीट पर अपने भाई से बातें करने में व्यस्त हैं। तभी बच्चा उसके पास आकर कहता है -दी आपको वहां बुला रहा है। " चौक कर नेहा -"मुझे " अभी आती हूँ भाई।
गेट के पास शास्वत को नेहा-"तुम ".
"हाँ !अभी स्टेशन नहीं आया। यही बैठ जाओ। कुछ कहना है। "
शास्वत उसे रुकने का इशारा करता है। नेहा शरमाते हुए वहीं बैठ जाती है।
शास्वत -" तुम्हे कुछ अजीब लग रहा ?कुछ कहोगी नहीं ?"
नेहा - हां मुझे भी अजीब सा लग रहा है। समझ नहीं आ रहा पर क्या !
शास्वत -" अब हम कभी नहीं मिलेंगे शायद !दो विपरीत दिशाएं कहाँ मिलती हैं बस यह छोटी सी मुलाकात याद रखना। कुछ कहो नेहा ". ....... निशब्द खामोशी ठहर जाती है दोनों के बीच। गाड़ी जाती है। एक बार रुककर नेहा को निहारता है कुछ कहना चाहता हो जैसे पर बिना कहे मुस्कुराकर चले जाता है। नेहा उसे दूर तक जाते हुए देखती रहती है