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dr vandna Sharma

Drama Tragedy

5.0  

dr vandna Sharma

Drama Tragedy

क्या ज़िंदगी ऐसी भी होती है ?

क्या ज़िंदगी ऐसी भी होती है ?

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आज कॉलेज में बहुत मजा आया। जैसे ही मैं विभाग में पहुँची. डॉ सविता अपनी समीक्षा पढ़कर सुना रही थी। उन्होंने सचमुच बहुत सुंदर लिखा। सहज व सरल। आज मधु मैम ने मुझे एक नया कॉम्पलिमेंट दिया- "वंदना के अंदर बहुत प्यार है, बहुत ही सरल व निश्छल है यह लड़की। संकोच न होना वह प्लेटफार्म है जो तुम्हें सफलता तक पहुँचाएगा। जो कुछ भी तुम्हारे भीतर है लिख डालो ,अद्भुत ही होगा।

"कभी -कभी सोचती हूँ कितनी लकी हूँ सब मुझे कितना प्यार करते हैं। कॉलेज में भी और घर में भी। मेरे पापा मुझे बहुत प्यार करते हैं पर मेरी आलोचना भी सबसे ज़्यादा करते हैं। मेरी मम्मी बिन कहे मेरी बात समझ जाती है मुझे क्या चाहिए ?

मैं उदास होती हूँ तो वो भी दुखी हो जाती हैं। मेरी छोटी बहिन विनय मेरा बहुत ध्यान रखती है, बड़ी बहिन की तरह। उसके प्यार करने का ढंग निराला है, सारे दिन लड़ती है, हुकूम चलाती है पर मेरे बिना एक पल भी नहीं रह सकती। मेरा छोटा भाई विकास मेरा दोस्त भी है। मुझे बहुत प्यार करता है, हर बात शेयर करते हैं हम एक दूसरे से। वो मेरा हर कहना मानता है, मुझे घूमने ले जाता है, चाट भी खिलाता है। वह जो भी कविता लिखता है सबसे पहले मुझे सुनाता है। एक दिन भी फोन न करूँ तो लड़ता है तू मुझे फोन नहीं कर सकती। बहुत भावुक है वो ,.मेरे बड़े भैया हम तीनों को बहु

त प्यार करते हैं। रोज़ हमसे फोन पर घंटों बात करते हैं। गोवा इतना बढ़िया शहर है फिर भी वो हमारे लिए वहाँ से ट्रांसफर करा बिजनौर रहना चाहते हैं।

कभी कभी ये ज़िंदगी इतनी हँसी लगती है जैसे खिलता हुआ गुलाब तो कभी जून की तपती लू सी झुलसा देती है मन को और मैं सोच में पड़ जाती हूँ क्या ज़िंदगी ऐसी भी होती है। ज़िंदगी की कशमकश में कुछ ऐसा उलझे हम कुछ दुनिया हमको भूल गयी और कुछ दुनिया को भूल गए हम कब दिन ढला कब रात आयी दैनिक कार्य-पिटारो में अपनी सुध भी ना आयी।

गमों में भी मुस्करा दिए। जान-बूझकर काँटों पर पग बढ़ा दिए पर खुलकर कब हँसे।

वो खिलखिलाहट तो भूल गए हम, जाने कैसी उलझी ज़िंदगी सुलझाने में, ज़िंदगी को और उलझती गयी ज़िंदगी।

फ़र्ज़, क़र्ज़ और न जाने कितनी जिम्मेदारी, सीढ़ी दर सीढ़ी मंजिल चढ़ी ज़िंदगी, गिरकर फिसली , फिर उठ बढ़ चली ज़िंदगी।

औरों को समझने में उलझे रहे पर खुद को ही न समझे हम। ज़िंदगी की कशमकश में कुछ ऐसा उलझे हम।

खुशियाँ चारों ओर बिखरी थी। हर जगह मृगमरीचिका सा दौड़े।

मन की ख़ुशी न देखी बाहरी चकाचोंध में उलझे हम। सबका साथ दिया, किसी को तन्हा न छोड़ा।

फिर भी क्यों तन्हाई से दो-चार हुए हम। बस एक ज़िद थी खुद से ही जीतने की।

ना जाने क्यों खुद से ही हार गए हम।


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