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विदाई

विदाई

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लाली ने अपने सहपाठी मोहन से विवाह की इच्छा जतायी तो पापा सुधीर ने तुरंत हाँ कर दी। लड़का और परिवार अच्छा था और लखनऊ के ही लोग थे। उनका घर सुधीर के घर से कोई दस कि मी की दूरी पर था। लाली की माँ भी इस संबंध से खुश थी। लड़की पास में ही जाएगी। यद्यपि मोहन की नौकरी दिल्ली में लगी थी। लाली मोहन के साथ दिल्ली में रहने वाली थी फिर भी उसका घर तो पास में था। जब वो अपने घर आएगा तब लाली भी अपने घर आ सकती थी।

विवाह की तैयारियों के बीच सुधा बुआ ने लाली लाली को छेड़ा, “लाली विदा में रोयेगी कि नहीं।”

लाली ने कहा, “उसमें रोने जैसी क्या बात है ?”

बुआ बोली, “हाँ वैसे भी आजकल रोने का रिवाज नहीं। लड़कियां अब कहाँ रोती हैं।”

लाली के हम उम्र चचेरे भाई राजू ने मज़ाक में कहा, “आजकल दुल्हन के मेकअप पर इतना अधिक खर्चा आता है कि कोई दुल्हन रोकर उसे बिगाड़ने का रिस्क नहीं ले सकती फिर फोटो भी तो अच्छी आनी चाहिये।

सुधीर भी वहीं बैठे डायरी में कुछ हिसाब किताब लिख रहे थे बोले, “लाली का जाना पहचाना लड़का है। पास में ही ससुराल है। रोने की कोई वजह नहीं। बुआ, चाची वगैरह विदाई के समय लाली से लिपट के रोने की रस्म न करें। खुशी के वातावरण में विदाई होनी चाहिये। आखिर कार ये 21 वीं शताब्दी है।

विवाह सम्पन्न हुआ। विदाई का समय आया, लाली दुल्हन बनी, मोहन के साथ फूलों से सजी कार में बैठने से पहले सबसे मिलने के लिए रुकी। फोटोग्राफर ने लाली को कैमरे की तरफ देखने को कहा। लाली की माँ ने लाली को गले से लगाया तो खुद को रोक न सकी रुलाई फूट ही पड़ी। लाली भी मेकअप और फोटोग्राफी का ध्यान भूल गयी। वह मुस्कराकर माँ को सांत्वना देने की कोशिश करती रही किन्तु दो चार आँसू तो गालों पर ढलक ही गये।

सुधीर अपनी भावनाओं पर काबू करने की कोशिश करते रहे। फिर भी उनके होंठ कांपते रहे और न जाने कहाँ से इतने आँसू इकट्ठे हो गये थे जो धारा बन के बहे। उन्हें शायद खुद इस अवस्था का पूर्वानुमान नहीं था। उन्होंने रुमाल निकालने के लिये कुर्ते की जेब में हाथ डाला तो उसमें रुमाल नहीं था।

लाली उनकी ओर आ रही थी। उन्होंने कुर्ते की आस्तीन से आँसू पोंछे और मुस्कराते हुये उसे गले लगाया। फिर वो कार की तरफ बढ़ गये। उन्होंने कार का दरवाजा खोलकर लाली और मोहन को बैठाया।

ड्राइवर ने संकेत पाकर कार आगे बढ़ा दी। सुधीर ने मुस्कराते हुए हाथ हिलाकर लाली और मोहन को विदा कर दिया। 


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