निर्विकार
निर्विकार
"क्या रस नौ ही होते है?? नही.. नही..यह अभिनय के मापदंडों का आधार हो सकता है, सच्चाई का अलग ही चेहरा है"
उसने तो अपनी छोटी सी जिन्दगी मे इतने भावों का समावेश देखा है कि नवरस या चेहरे के भावों से उन की व्याख्या कर ही नही सकते....
सुहानी किताब एक तरफ रख अपने मे ही उलझने लगी।
सुहानी के सामने माँ का ममतामयी चेहरा घूम गया...
नहा धो कर, गीले बाल, हाथ मे आरती की थाली लिए घर भर मे घूमती उसकी माँ...ड्राइवर काका की बिटिया का हाल पूछती, रसोईघर मे खाने की व्यवस्था देख रहीं थीं कि अचानक विस्मय व भय से माँ काँप उठी...सुहानी सिर्फ चार वर्ष की अबोध बालिका थी, जो दादी कि गोद में सर रख कर अपनी माँ को निहार रही थी। माँ के भक्तिमय, करुणामय चेहरे पर यूँ भाव बदलते देख वो भी सहम गयी। दरवाज़ा धकेलते, घर मे घुसे सात आठ लोगों की अगुवाई करता ड्राइवर काका का सबसे बड़े बेटे अम्मू भैया... आमिर...वस्तुस्थिती समझते ही माँ क्रोध से भर उठी। आमिर की बेहुदा हरकतों से क्रोध और दुःख से भरी माँ क्या क्या बोल रही थी, उसे कुछ याद नही, बस पल पल बदलते माँ के चेहरे के भाव सुहानी के मासूम मन पर छपते जा रहे थे। ड्राइवर काका माँ के सामने खड़े होकर अपने बेटे के वार अपने उपर ले रहे थे कि तभी वो आमिर के एक धक्के से दूर जाकर गिरे। आवेश मे माँ ने लपक कर जो हाथ मे आया, उसे ही उन लोगों पर फेंकना शुरू किया। घबराई दादी सुहानी को दुबकाऐ हुए थी और सुहानी की निगाहें एकटक माँ को देख रही थी...चिमटा, बेलन, लाल मिर्च सब माँ के हथियार थे और तभी धूँ धूँ कर आग की लपटें उठने लगी...आरती का दीपक भी मानो अपनी क्षमतानुसार उन उग्र दंगाईयों से माँ की रक्षा कर रहा था।
उन कुछ पलो में सुहानी की माँ क्या से क्या हो गयी...कितने रुप देखने के बाद आज तक वो माँ के चेहरे पर एक ही भाव को स्थिर देख रही है।
सपाट...निर्विकार...भावशून्य.... उस दिन का अग्निकांड माँ के चेहरे के सारे भाव समेट कर अपने निशान दे गया...दोनों आँखें तो बच गयी पर चेहरे का शेष भाग सदा के लिये संज्ञा शून्य हो गया।
"चेहरा भावहीन हो जाने से हृदय तो भावहीन नही हो जाता ...सारे भाव वैसे ही रहते हैं, पर बस अब माँ की निगाहों में.....अब माँ की आँखें भावनाओं को प्रगट करती है....उन्हें चेहरे की आवश्यकता ही नही है!!