गोवर्धन बाबा
गोवर्धन बाबा
आज शादी के बरसों बाद दीवाली पर अपने गृहनगर में हूँ। पति का कहना था कि दीवाली तो मुझे हमेशा तुम्हारे साथ ही मनानी है। तो दीवाली पर कभी पहुँच ही नहीं पायी। दीवाली के दूसरे दिन सुबह तड़के ही मेरे साठ वर्षीय शरीर के अंदर छुपी दस वर्षीय बालिका मायके की हवा पाकर कुनमुनाने लगी। "चलो उठो, चलकर सारे दीपक बिन कर लाने है।" जितने ज्यादा दीपक साल भर उतनी ज्यादा खुशियां अपने नसीब में होती है ऐसा दादाजी कहा करते थे। आज समझ आता है शायद वो इसलिए कहते होंगे कि घर सजाते समय, दिए लगाते समय तो हम कहीं भी चढ़ कर दिए लगा देते है, बाद में उन्हें वहां से हटाएगा कौन। खैर जो भी हमेशा मेरे पास ही दिए ज्यादा रहते थे। शायद मैं दादाजी की बात पर विश्वास करती थी और साल भर सबसे ज्यादा खुश रहने के लिए सबसे ज्यादा दिए बटोर लाती थी। यहां तक की आजू बाजू अड़ोसी पड़ोसियों के घरों के बाहर के भी।
यह आदत मेरी तब छूटी जब यही बात मैंने बेटे को सिखायी। वह जाकर सिर्फ अपने लगाए सारे दिए उठा लाया। मैं बोली पागल सारे दिए लाने चाहिए थे न, आलसी कहीं का। वो बोला, मम्मा खुशियों पर तो सबका हक़ होता है ना। मैं सिर्फ हमारे हिस्से की खुशियां ही बटोर लाया।" मेरा बेटा सच कह रहा था। पर मेरी आदत छूटी तो नहीं शायद इसीलिए मेरे अंदर की लड़की मुझे इस कटकटाती ठंड में भी बाहर उठा ले गयी। बाहर जा कर जब इधर उधर नज़र दौड़ाई तो याद आया, अरे दिए कहाँ लगाए थे ? झालरे और मोमबत्ती ही तो लगाई थी । अब मोमबत्ती का मोम तो रख नहीं सकते। अपने अंदर की छोटी लड़की को डाँटते हुए वापस बिस्तर पर आ कर बैठ गयी ।
लिहाफ खींच कर लेटने ही जा रही थी कि वह फिर से कुनमुनाई, "आज तो परेवा है, आज देर तक सोओगी तो साल भर देर तक सोओगी।"
मैंने उसे बुरी तरह झिड़क दिया, "चुप कर , पता नहीं कहा कहा की पुरानी बातें कर रही है अब यह सब कौन मानता है"?
वह फिर कुनमुनाई, "अच्छा मत मानो। पर चलो ना, बाहर जा कर गाय का ताजा गोबर बिन कर लाते है।"
"गाय का गोबर वह भी ताजा, वह क्यों भला ? मतलब कतई मुझे सठिया गयी है यह कहलवाने का बंदोबस्त करवा रही हो।"
"नहीं आज गोवर्धन है ना" ?
"हा , होगा तो"?
"तो तुम भूल गयी ? मम्मी तुमसे ही गोवर्धन बनवाएंगी।"
अरे हा न, गोवर्धन पूजा। सालों हो गए कैसे याद रहता ? ससुराल में तो मनाते ही नहीं है। वैसे तब यह जानकर बहुत खुशी हुई थी कि चलो छुटकारा मिला।
छोटी लड़की कामयाब हो गयी थी। मैं पचास साल पहले ही यादों में खो गई।
पूजाघर से मम्मी की आवाज आ रही है, "अनु जाओ सामने पंडिताइन के घर से गाय का गोबर ले आओ।"
"मम्मी मैं पूरे हफ्ते खाना बना दूँगी। या आप कहोगी तो पूरे पंद्रह दिन पोंछा मार दूँगी। पर मैं ये गोबर लेने नहीं जाऊँगी ना ही गोवर्धन बनाऊंगी।" "मम्मी मैं अपने कपड़े भी धुल लूँगी पर प्लीज, गोवर्धन नहीं।"
घर में मेरे दो भाई बहन और है। मम्मी उनको क्यों नहीं बोलती। यार ये गोबर को छूना ....छि..यक्क। पर मेरी नहीं चलती। पचास साल पहले के बच्चे माँ पापा की ही सुननी पड़ती थी। रोने का, शिकायत का फायदा नहीं, और कूट दिए जाते थे।
मैं मुंह बना कर जाती गोबर लाती। फिर मम्मी के साथ आँगन धो पोंछ कर गोवर्धन बनाने बैठती। पहली बार छूना महा कठिन लगता। मानो गले पर छूरी रखी हो। उसके बाद फिर घिन दूर हो जाती। मम्मी भी उठ कर चली जाती। मैं अकेले पूरा गोवर्धन बनाती। बड़ा सा घर, सूरज चन्द्रमा, चकिया चलाती देवरानी जिठानी, धान पछोरती दादी, रोटी बनाती औरतें, गाय बैल, गंगा जमुना, चार कोनों में चार बखार, कि घर धन धान्य से भरा रहे। घर के बाहर मूंछें वाले दरबान, जिनको हमेशा किसी मामा की उपाधि मिलती। उनके हाथ में मोटा सा डंडा घर की रखवाली के लिए। घर के बीचोबीच में बड़े से गोवर्धन बाबा, उनकी बड़ी सी नाभि उसमें दूध भरा जाता था। उस पर सरसों के तेल का दीपक रखकर साल भर के लिए काजल पारते थे। एक मजे की बात आप विश्वास करो या ना करो, मम्मी उस काजल को देख कर बता देती थी कि इस साल घर में किसी को लड़का होगा या लड़की। खैर तो अब गोवर्धन बाबा तैयार है। जल्दी से नहा कर आ कर मैं मम्मी के साथ अलग अलग अन्न से बखार भरती, चकिया पर आटा डालती, पूरे गोबर पर जौं खोंसती, फिर उनकी पूजा करती। थोड़ी देर पहले गोबर से घिनाने वाली मुझे अब हाथों से आती गोबर की बदबू बुरी नहीं लगती थी।
फिर दादी और मोहल्ले की बड़ी बूढ़ी, ताई, दीदी वगैरह हम सभी एक दूसरे के घर जाते। देखते किसका गोवर्धन अच्छा बना है। सबका एक जैसा ही रहता फिर भी दादी मेरी तारीफ करती, कि एक बराबर, लंबाई चौड़ाई है, चकिया अच्छी बनी है। बखार सही नाप की है, शायद यह उस समय की लड़कियों के स्वभाव को जाँचने के तरीके होंगे। जिसकी बखार बड़ी, अरे ई तो घर का फूँक देइहि। जिसकी छोटी अरे बड़ी कंजूस है, नौकर न टिकी। जिसकी देवरानी जिठानी दूर दूर , अरे भईया इनका सिखाओ, देवरानी जिठानी से मिल कर रहैक चाही।
मैं यादों में खोई थी कि भतीजी आ कर बोली, बुई उठ गई आप ? चलिये चाय पीते है।
मैंने कहा पर आज तो गोवर्धन है ना ? अभी बनाये बगैर कैसे चाय पियेंगे ? चलो मैं भी चल कर बनवा लेती हूँ तुम्हारें साथ।
अरे बुई, मैं ना बनाने वाली। अभी नाऊंन दीदी आएंगी , वहीं बना देंगी।
मैंने आश्चर्य से पूछा, "और तुम्हारी दादी ? बनाने देगी" ?
सिर्फ दादी ही तो मनाती है और कोई तो मनाता भी नही। तो दादी नाऊंन दीदी से सगुन करवा लेती हैं।
"चलो यह भी ठीक है।" हम दोनों बाहर आये। बाहर मम्मी खूब सारी सब तरह की भाजी लेकर सब एक में ही काट रही थी। मुझे देखते ही बोली, "आज गोवर्धन है, अनु इतने साल बाद हो तो बना देना।"
मैं और मेरी भतीजी एक दूसरे को देख कर मुस्कुराए। मैंने कहा, "मम्मी अब मैं बड़ी हो गयी हूँ, वैसे भी अब नाऊंन दीदी बनाती है तो उनको ही बनाने दो।"
थोड़ी देर बाद नाऊंन दीदी आयी, थोड़ा सा गोबर लेकर। मुझसे रहा न गया तो पूछ लिया, "इतने थोड़े से गोबर में कैसे बनेगा"?
वो बोली, "अरे बिटिया अब को बनावत है, रच के शगुन करि देब।"
पता नहीं मेरे अंदर की छोटी लड़की कब मुझ पर हावी हो गयी और मैं भी नाऊंन दीदी के साथ बैठ कर गोवर्धन बनाने लगी। मुझे देखकर मेरी भतीजी भी आ गयी। उसका भी वही हाल था जो पहले मेरा होता था। पहली बार छूना ही कठिन होता है फिर अच्छा लगता है।
भतीजी बोली, "बुई आप ऐसे ही बनाते थे" ?
"नहीं बिटिया मैं तो खूब बड़ा सा बनाती थी। दादी बोलती जितना बड़ा, जितना सुंदर उतना ही अच्छा घर मिलता है।"
वो बोली, "बुई मुझे छोटा सा घर मिलेगा" ?
मम्मी बोली, "अब सबको छोटे घर ही मिलते है, फ्लैट, न जमीन अपनी ना छत अपनी।"
मेरा भाई हमारी बातें सुन रहा था शायद। हम अभी विचार कर ही रहें थे कि वो जाकर और गोबर ले आया, बोला, "मेरी बहन और बेटी को छोटा घर मिले या बड़ा पर हो उनके मन का। मैं साथ हूँ न तुम लोग जैसा मन चाहे वैसा, जितना बड़ा चाहो उतना बनाओ।"
अब नाऊंन दीदी हट गई थी। मैं और मेरी भतीजी, चकिया पीसती, रोटी सेकती, धान पछोरती औरतें बना रहे थे। साथ ही साथ मैं दादी की कही बातों पुरानी मान्यताओं के बारे में उसे बताती जा रही थी। आखिर यह मेरी जिम्मेदारी थी नई पीढ़ी को पुरानी के बारे के बताने की। मेरी भतीजी ने तभी कुछ बनाया। मैंने पूछा, "यह क्या है?"
वह बोली, उस समय में औरते जो काम करती थी वही बनाती थी। मैंने आज की औरते जो करती है वो भी दिखा दिया है। यह है लैपटॉप पर काम करती औरत।
मैं मुस्कुरा दी। यह है आज की पीढ़ी, पुराने संस्कारों को नए विचारों से पोषित करने वाली। मुझे खुशी थी हमारे रीति रिवाज समाप्त नहीं होंगे, वह सुरक्षित हाथों में सौंप दिए गए है।
