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Prafulla Kumar Tripathi

Tragedy

3.4  

Prafulla Kumar Tripathi

Tragedy

नियति तुम्हारी !

नियति तुम्हारी !

4 mins
502


उम्र के उस दौर को जब याद करता हूं तो तुम्हारी याद ज़ेहन में उतरती ही चली जाती है। रेडियो स्टेशन के स्टूडियो से तुम्हारी ख़ूबसूरत आवाज़ जब हवा में तैरती तब मैं क्या मुझ जैसे हजारों युवा तुम्हारे दीवाने बन जाते थे। उन्हीं दीवानों में एक अपना भी नाम था।

हांं, धीरा मैनें तुम्हारे बारे में अपनी इलाहाबाद पोस्टिंग के दौरान निखिल जोशी से जितना और जैसा सुना था तुम उससे कई गुना ख़ूबसूरत निकली थीं। निखिल कहता-"यार ,गोरखपुर जा रहे हो ज़रा देखना तो वो कैसी है?शादी का प्रपोजल आया था लेकिन मुझे तो कुछ ख़ास नहीं लगी थी। "

मेरी पहली ड्यूटी थी और तुम श्वेत वस्त्रों में हरसिंगार सी खुशबू लिये मेरे साथ ड्यूटी पर आई थी। मैं एकटक तुम्हें निहारता रहा था कि अचानक तुम्हारी आवाज़ ने मेरा ध्यान खींचा।

'सर,आप नये आए हैं क्या ?'

'हां..मैं इलाहाबाद से ट्रांसफर होकर कल ही ज्वाइन किया हूं। '

"ओ.के."....बोलकर तुम स्टूडियो में चली गई थीं लेकिन मैं देर तक तुम्हारे रुप और यौवन के जादू से मदहोशी में रहा। थोड़ी ही देर बाद फोन की घंटी बज उठी।

"हेलो !"

उधर निखिल था।

"यार,मुलाक़ात हुई उससे ?"उसने उत्सुकता वश पूछा।

"हां,डियर निखिल । तुमने एक कोहिनूर खो दिया है। ...इस लड़की की सुंदरता,सौम्यता का कोई जोड़ नहीं है। मुझसे आज ही मुलाक़ात हुई है और ... और यार ,मै तो उससे लव ऐट फर्स्ट साइट कर बैठा हूं। "वह हा हा हा करते ठहाके लगाने लगा था।

समय चक्र चलता रहा और धीरा के साथ अपनीअन्तरंगता बढ़ती रही। अक्सर सुबह की ड्यूटी हम साथ करते और जब वह रेडियो पर गुड मार्निंग करती तो मैं उसके लिए ताजा लाल गुलाब लेकर हाजिर रहता । एक दिन उसने पूछा ;

"बाई द वे मिस्टर त्रिपाठी... मेरे लिए रोज यह लाल गुलाब ही क्यों लाते हो आप?"

"पगली,इतनी भी समझ नहीं है तुझे कि मैं...मैं..तुमसे बेपनाह प्यार करने लगा हूं ..और ..और जिसका सिम्बल है यह लाल गुलाब !"मैं एक सांस में बोल पड़ा था।

वह शरमा गई थी। उसके चेहरे का सौंदर्य और निखर उठा था।

अगले दिन मुझे एक सप्ताह के लिए दिल्ली जाना था और मैं जब लौटा तो एक दिन डरते डरते मैनें अपने पैरेंट्स को उसके पैरेंट्स से मिलने भेजा। उन्होंने ख़ूब आवभगत की लेकिन कोई भी प्रस्ताव मुझसे मुतल्लिक नहीं दिया। मेरे पैरेंट्स चले आये। मुझे सारी बात मालूम हुई तो मेरा माथा ठनका।

अगले दिन रात की ड्यूटी में हम साथ थे। समय मिलते मैनें धीरा से कहा-"धीरा,पता है कल मेरे पैरेंट्स तुम्हारे घर गये थे?"

उसने कहा-"हां। "

"फिर तुम्हारे पैरेंट्स ने कुछ कहा क्यों नहीं ?" मैनें पूछा।

"बुरा मत मानो तो मैं तुम्हें एक बात शेयर करुं। "धीरा कुछ मंद मंद स्वर में बोली।

"असल में गीता बाटिका के संत से मेरे पैरेंट्स बहुत प्रभावित हैं और उन संत ने मेरी शादी दिल्ली के एक युवक से तय कर दी है जो विदेश में नौकरी कर रहा है। ...ये..ये..अंगूठी रिंग सेरेमनी में मुझे पहना दी गई थी। ....अब ..अब मैं चाहकर भी अपने पैरेंट्स को अपने दिल की बात नहीं कह सकी । "धीरा अपनी आंखें नीचे झुकाकर बोले जा रही थी।

मुझे मानो चक्कर आ गया और मैं नि:शब्द बाहर आ गया। अगले दिन से हम पास रहकर भी दूर हो चले थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इन बाबाओं को शादी के जोड़े लगाने से क्या मिलता है!

समय पंख लगाकर उड़ ही रहा था कि धीरा अपनी शादी के कार्ड के साथ मुस्कान लिए सामने खड़ी थी।

"आएंगे ना?"उसने पूछा।

"अवश्य.... अपनी बर्बादी को अपनी नज़रों से देखने ज़रूर आऊंगा। "मेरी आवाज़ में कड़वाहट थी..जो नहीं होनी चाहिए थी।

नियत समय पर धीरा शहर से मन से विदा हो गई।

लेकिन अचानक दो साल बाद समाचार आया कि धीरा के पति कैलिफोर्निया में हार्टअटैक से दिवंगत हो गये। धीरा की गोद में एक बच्चा आ चुका था। अब धीरा की ज़िंदगी के स्याह पन्ने जुड़ने लगे थे।

आज वर्षों बाद पता चला कि अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर उसकी घर गृहस्थी बसाकर धीरा ने जब तैयार कर दिया तो वह ख़ुद इंडिया वापस आ गई है और..और दक्षिणी भारत के एक सिद्ध बाबा के चैरिटी हास्पिटल में अपनी सेवाएं दे रही है।

नियति के इस क्रूर चक्र में पिसने के बावजूद धीरा आब भी ढोंगी बाबाओं के तिलस्म से मुक्ति नहीं पा सकी है।


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