मान का पान
मान का पान
माँ, मैं मम्मी के पास जा रही हूँ, कल आऊँगी।
यह कहते हुये बहू ने हमारे पैर छुये और साथ में पास बैठी हमारी लाडली सिर चढ़ी देवरानी के भी पैर छू कर नमस्ते कह कर आशीर्वाद के लिये ऊपर देखा। देवरानी ने भी साथ में उसे आशीर्वाद दिया और कहा- वहाँ सबसे हमारी दुआ सलाम कहना और उसके जाते ही हमसे बोली- “ये क्या जिज्जी आपने एसे ही जाने दिया कुछ कहा नहीं। रोका टोका नहीं, फिर तो इसके पैर ससुराल में कभी नही टिकेंगे। भूल गयी आप, हम लोगों के समय में कभी यूँ आसानी से कहीं जाने को नहीं मिलता था।”
मैंने मुस्करा कर देवरानी से कहा- “सुनो छोटी याद है सब अच्छी तरह याद है, हमें हमेशा ना कह दिया जाता था इसी लिये तो हम लोगों ने बाद में पूछना ही छोड़ दिया था। अब देखो जब कोई रोकने-टोकने वाला नहीं है तो हम लोग कहीं जाते ही नहीं हैं।
पास मे मायका है पर अब तो मायके गये हुये भी समय हो जाता है। अभी वो नयी है, जब यहाँ रच बस जायेगी तो अपने आप ही यहाँ का मोह छोड़ नहीं पायेगी। अभी देखो हम सबको वह कितना मान देती है और मान के पान से बड़ा कुछ नहीं।”