हाथों में स्वर्ग
हाथों में स्वर्ग
बात बहुत ही पुरानी है। जब धरती नहीं थी और आकाश भी नहीं था। बस स्वर्ग था और स्वर्ग के देवता। वो सब बस अपने मन बहलाव में व्यस्त रहते थे। फिर एक दिन ईश्वर ने इंसान की रचना की। दिखने में बिल्कुल देवता समान पर देवताओं की शक्तियों से वंचित। स्त्री-पुरुष की प्रथम जोड़ी जब स्वर्ग में आयी तो वहाँ का सुन्दर वातावरण देख मंत्रमुग्ध खड़ी रह गयी। कुछ दिन तो दोनों को वहाँ रहने में बेहद अच्छा लगा पर धीरे-धीरे उन्हें वहाँ हीनता का बोध होने लगा।
वे दोनों ईश्वर के पास पहुँचे और अपना दुःख उन्हें बताया, "प्रभु, देवता हमें अपने समकक्ष नहीं मानते। उनके पास तो कई शक्तियाँ हैं। वे पल में एक जगह से दूसरी जगह पहुँच जाते हैं। उनका रंग-रूप सदियों से एक जैसा है। जबकि हममें न तो दैवीय शक्तियाँ हैं और बस एक वर्ष में ही हमारा चेहरा पहले से कुछ बदला-बदला लग रहा है। कृपया हमारे लिए नया संसार बनाएँ।"
ईश्वर मुस्कुरा कर बोले, "बच्चों तुम ये चाहते हो तो मैं तुम्हारे लिए धरती का निर्माण कर देता हूँ। पर अब तुम धरती से स्वर्ग सशरीर नहीं आ पाओगे। हाँ मृत्यु के बाद आ सकोगे। धरती में तुम्हें अकेला न लगे इसलिए मैं तुम जैसे और इंसान भी बना देता हूँ। साथ में कुछ नए जीव भी बना देता हूँ ताकि धरती अपनी सुंदरता से स्वर्ग से भी सुन्दर हो जाए।"
फिर ईश्वर ने धरती रची और रचे कई जीव-जंतु। पक्षियों के कलरव और जीव-जंतुओं की चिंघाड़ों से हरी-भरी धरती कितनी सुहानी लग रही थी। स्वर्ग से भी सुन्दर।
इंसान के हाथों में धरती की बागडोर सौंप ईश्वर कुछ देर विश्राम करने लगे। अभी ईश्वर ने मात्र एक दो घड़ी ही विश्राम किया था कि देवताओं ने आकर उन्हें जगाया। ईश्वर की दो घड़ियाँ यहाँ धरती के हजारों वर्षों के बराबर लम्बी।
"हे ईश्वर इंसान तो अपनी मनमर्जी कर रहा है। देखिये वहाँ पक्षियों, जीव-जंतुओं को बिना बात मार देता है। अपने मनोरंजन के लिए खेल-खेल में जंगल जला रहा है। धरती को बेहाल कर दिया है।"
ईश्वर झट स्वयं धरती पर पहुँचे और अपनी रचना की दुर्दशा देख क्रोधित हो गए। उन्होंने सभी इंसानों को बुलाया और क्रोधित स्वर में कहा, "मैं अभी जाकर नरक की रचना करूँगा जो स्वर्ग से बिल्कुल विपरीत जगह होगी। जहाँ बस दुःख ही दुःख होंगे और होगा सजाओं का अंतहीन सिलसिला। जो भी जानबूझ कर किसी दूसरे इंसान, जीव-जंतु या पेड़-पौधों को नुकसान पहुंचाएगा वो मृत्यु के बाद नरक ही जाएगा।"
इतना कह ईश्वर और देवता धरती से चले गए।
उस समय जो इंसान थे उन्होंने फिर धरती, जीव-जंतु और पेड़-पौधों का विनाश बंद कर दिया और अपने पहले की गलतियों की माफी माँगने के लिए उन्हें पूजने लगे।
कुछ पीढ़ियों तक इंसान को ईश्वर की बात याद रही। पर फिर अगली पीढ़ियाँ प्रकृति के विनाश में लग गयीं।
उन्हीं के कर्मों का नतीजा है कि ईश्वर ने उनके हाथों जो स्वर्ग स्वरूपा हरी-भरी धरती दी थी वो आज दूषित है, बंजर है और हमारी जरूरतों का भार सहने में असमर्थ होती जा रही है।
अभी भी समय है कि इंसान अपने हाथों में इसे सहेज लें, इसे प्रदूषित न होने दें। इसके संसाधनों का दुरुपयोग न करें।
समय रहते चेत जाएँगे तो सब सही हो सकता है। अगर अब भी न सुधरे तो आने वाली पीढ़ियों को जीतेजी एक नरक में रहना पड़ेगा।
तप्ती, सूखी, बंजर और प्रदूषित धरती; नरक नहीं तो क्या होगी ?