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तुम्हारी मंजूषा

तुम्हारी मंजूषा

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काॅलेज में प्रिंसिपल ने अकस्मात सब स्टाफ वालों की मीटिंग बुला ली थी। एक घंटा मीटिंग अटेंड करके मंजूषा अपने विभाग की ओर दौड़ पड़ी। परसों से एम.ए. प्रीवियस के वार्षिक प्रैक्टिकल प्रारंभ हो रहे थे। पहला ही प्रैक्टिकल वॉल म्यूरल का था। सारे स्टूडेंट्स से वॉल तैयार करवाकर, स्केच बनवा कर रखना पड़ेगा ताकि परसों से पेंटिंग शुरू करवाई जा सके। वह नीचे चली गई थी तो बच्चे सारे गप्पे मारने बैठ गए होंगे यह नहीं कि काम करते रहेंगे।

 मंजूषा चित्रकला विभाग की विभागाध्यक्ष है। कुल 45 छात्र-छात्राएं और 3 लोगों का स्टाफ है। एक टीचर छुट्टी पर थी और दूसरी मीटिंग खत्म करके नीचे से ही घर चली गई लिहाजा मंजूषा को ही ऊपर दौड़ लगानी पड़ी। जैसा मंजूषा ने सोचा था वैसा ही हुआ था, सारे छात्र-छात्राएं यहां-वहां झुंड बनाकर गप्पे मार रहे थे। मंजूषा ने सब को डांट लगाई और स्वयं वहां खड़े होकर उनसे तेजी से काम करवाने लगी। 5:30 बज गए। दिन ढलने की कगार पर खड़ा था। मंजूषा ने फटाफट सारा सामान विभाग में रखवाया। अपने सामने सारे छात्र-छात्राओं को घर रवाना किया। प्यून से विभाग में ताला लगवाया और नीचे कार में आकर बैठ गई। ड्राइवर घर की ओर ड्राइव करने लगा। 

मंजूषा ने घड़ी देखी 6:15 हो गए। आज वेणु फिर परेशान होकर अंदर बाहर हो रहे होंगे। 15 मिनट में ही गाड़ी घर पहुंच गई। कार से उतरते हुए वह सोच रही थी, अभी घर में पैर रखते ही वेणु चिंता से भरे स्वर में पूछने लगेंगे, "क्या बात है आज इतनी देर क्यों हो गई? मैं कब से परेशान हो रहा था" और मंजूषा अपनी उसी चिर परिचित खीज में भरकर कहेगी, "ओहो आप तो बस जरा से में ही परेशान हो जाते हैं मैं क्या बच्ची हूँ? अब तो मेरी चिंता करना छोड़ दो।"

"जब मैं बाहर जाऊंगा और तुम दिन भर घर में मेरा इंतजार करती रहोगी ना तब तुम्हें पता चलेगा कि निर्धारित समय पर अपने का न लौटना कितना चिंतित कर देता है।"

 "ओह मैंने फोन कर तो दिया था कि आज देर हो जाएगी।" अपने विचारों में उलझी मंजूषा आंगन का दरवाजा खोलकर जब बरामदे के दरवाजे तक पहुंची तो उस पर लगे ताले ने जैसे आंसू भरे स्वर में कहा 'कौन चिंता कर रहा होगा मंजूषा वेणु होते तो क्या तुम्हारे बरामदे के दरवाजे तक आने तक रुकते? नहीं वह तो आंगन के दरवाजे को पकड़े तुम्हारे आने की राह तकते सड़क पर नजरें जमाए बैठे रहते।’

और पर्स से घर की चाबियां निकालती मंजूषा की पलकों की कोरे भीग गई। ढाई महीने हो गए वेणु को गए हुए लेकिन आज भी कॉलेज में जाकर रोज ही वह भूल जाती है कि वेणु अब नहीं है। देर होने पर मन वैसे ही छटपटाने लगता है, की वेणु परेशान हो रहे होंगे, वेणु अकेले हैं, बोर हो रहे होंगे और रोज ही घर का जड़ा ताला उसे याद दिलाता, अब कोई नहीं है जो घर पर उसके लिए चिंतित होगा। वेणु अब नहीं है। बरामदे का दरवाजा, फिर हॉल का दरवाजा खोलकर मंजूषा घर के अंदर गई। पूरे घर में एक सन्नाटा पसरा हुआ था। ड्राइवर कार पार्क करके चाबी देकर चला गया।

 ढाई महीने हो गए हैं लेकिन मन अभी भी मानने को तैयार नहीं होता। मंजूषा समझ ही नहीं पाई कि उसे सचमुच याद नहीं रहता या वह अपना दर्द बर्दाश्त न कर पाने के कारण अपने आप को भुलावे में डालकर बहलाती रहती है कि वेणु घर पर उसकी राह देख रहे हैं। वेणु देर होने के कारण चिंतित हो रहे होंगे। पर्स टेबल पर रख कर मंजूषा ने साबुन से हाथ धोए और रसोई घर में जा कर दो कप चाय बना लाई। कमरे में आकर एक कप टेबल पर वेणु की फोटो के सामने रखा और दूसरा कप हाथ में लेकर सामने कुर्सी पर बैठ गई। वेणु चाय के खासे शौकीन थे लेकिन शाम की चाय कभी भी मंजूषा के बिना नहीं पीते थे, चाहे कितनी ही शाम क्यों ना हो जाए। वैसे तो मंजूषा का कॉलेज का समय 10:30 से 4:00 बजे तक का था। सवा चार, 4:30 तक वह घर पहुंची जाती थी लेकिन मीटिंग आदि में कभी-कभार देर हो ही जाती थी। तब वह कहती थी कि, वे चाय पी लिया करें उसकी राह ना देखा करें। पर वेणु नहीं मानते थे। 

"नहीं अकेले चाय पीने से ताजगी की जगह और उदासी महसूस होने लगती है। देर से ही सही पर मैं तुम्हारे साथ ही चाय पियूँगा।"

पर तब मंजूषा के पास समय कहां होता था। कभी खाना बनाने वाली आ जाती तो उसके साथ रसोई में घुस जाती या फोन पर लग जाती या फिर कुछ ना कुछ रोज ही होता और वह कभी चैन से वेणु के पास बैठ कर चाय नहीं पी पाती थी।

और आज....

आजकल वेणु के पास बैठे बिना मंजूषा के गले से चाय नीचे नहीं उतरती उनके फोटो के पास से हटने का मन नहीं होता कि वह अकेले रह जाएंगे। इंसान की मनःस्थिति भी कैसी अजीब होती है जब तक कोई सशरीर सामने होता है हम लापरवाही की हद तक निश्चिंत रहते हैं। लेकिन उसके जाने के बाद हम तब समय न दे पाने की पीड़ा का पश्चाताप करते हुए उन पलों को जीवंत कर लेने की असीम चेष्टा करते रहते हैं। मंजूषा का खाना, नाश्ता, चाय वेणु के साथ ही होता है। पहले जब वेणु थे तब कॉलेज से आने के बाद भी कहीं ना कहीं किसी प्रदर्शनी में, आर्ट गैलरी में या आर्ट वर्कशॉप में भागती रहती थी। लेकिन अब नहीं। अब कॉलेज से घर आकर कहीं जाने का मन नहीं करता। इस घर में वेणु के साथ बिताए पल जीती रहती। एकबारगी मन हुआ था नौकरी छोड़ दे। अब क्यों भागे? इकलौता बेटा अमेरिका में सेटल हो चुका है, वह भी वही चली जाए। मगर मन नहीं माना। यह सरकारी क्वार्टर मंजूषा के नाम है, पहले वेणु के नाम था। इस घर में उनकी 30 बरस की गृहस्थी का अधिकांश भाग बीता है। उनके और वेणु के जीवन की तमाम अच्छी-बुरी, खट्टी-मीठी बातें, यादें इसकी ईटों में जड़ी हुई है। 30 वर्ष तक उन दोनों के साथ ही यह घर भी हर सांस जीया है। और अभी 7 साल हैं उन्हें रिटायर होने में। तब तक तो वह इस घर की ईंटों में बसी यादों को सहला कर जी ले।

बैठे-बैठे कब रात घिरने लगी पता ही नहीं चला। कान में मच्छर भुनभुनाने लगे तब मंजूषा उठी एक मच्छर मार जलाई और फिर बैठ गई। यादों के काफिले फिर सफर पर निकल पड़े। ऐसे ही कभी गर्मी की शामों में वेणु बनियान पहन कर बैठते थे तब उनके कंधों पर मच्छर बैठा दिखने पर मंजूषा उसे मार देती।

 "चलो कम से कम मच्छर मारने के बहाने से ही सही तुम ने मुझे छुआ तो सही।" वेणु कहते।

 तब मंजूषा उनकी स्वर की आर्द्रता पर द्रवित होकर उनके पास बैठकर थोड़ी देर बदन पर हाथ फेर देती या कंधे पर सिर टेक कर बैठ जाती। नरम-गरम सेहत के चलते वेणु ने समय से पूर्व ही नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया था। बाहर आना-जाना भी कम ही हो पाता था। बेटा जब अमेरिका से आता था तभी वेणु को दिन भर के लिए किसी का साथ मिल पाता था। कॉलेज की विभाग-विभागाध्यक्ष और उस पर भी शीर्षस्थ चित्रकार होने के कारण मंजूषा की व्यवस्थाएं असीमित थी। हर समय भागदौड़ में व्यस्त। अपनी व्यस्तताओं में उलझी मंजूषा को कभी एहसास ही नहीं हुआ कि घर पर पूरा दिन अकेले रह जाने पर वेणु कितना उब जाते होंगे। आज उसे अकेलेपन के ये कुछ घंटे काटने को दौड़ते हैं। तब क्या पता था उसे की वेणु 4 दिन की मामूली बीमारी में यूं अचानक ही चले जाएंगे। कुछ सोचने समझने का मौका ही नहीं दिया उन्होंने। बेटा ही अमेरिका से बड़ी मुश्किल से आ पाया था। मंजूषा अकेली रह गई थी। वह कभी कल्पना ही नहीं कर पाई थी कि उसे उनके बिना भी कभी रहना पड़ सकता है। 35 बरस लंबा साथ जीवन के साथ कुछ ऐसे घुल मिल जाता है कि वह हमारा अभिन्न हिस्सा बन जाता है, हमारे शरीर, हमारे विचारों की तरह। जब तक हम हैं हमारा शरीर और विचार भी रहेंगे, ऐसा ही कुछ वेणु को लेकर मंजूषा के मन में था। वह तो हमेशा साथ रहेंगे मगर नहीं।

 रात के 8:30 बज गए थे। ऐसा लगा वेणु कह रहे हैं 'चलो खाना खा लो ज्यादा रात करना ठीक नहीं है तुम अपनी सेहत को लेकर बहुत लापरवाह हो' और पलकों की भीगी कोरों को पोंछते हुए मंजूषा उठ कर रसोई में जाकर अपने लिए थाली में सब्जी रोटी परोस कर ले आई।

 जब भी सुबह 7:00 बजे से कॉलेज में परीक्षाएं होती थी वेणु रात में खाना बनवा कर रख देते थे रसोईये से और सुबह मंजूषा से कहते 'पहले खाना खा लो मुझे पता है तुम्हें भूख जरा भी सहन नहीं होती है। 11:00 बजे तक तो तुम्हारी तबीयत बिगड़ जाएगी।'

 और वह चुपचाप उनकी बात मान कर सुबह के 6:30 बजे ही खाना खा लेती थी। मंजूषा को नहीं पता था लेकिन वेणु को पता था कि उससे भूख सहन नहीं होती। मंजूषा को मंजूषा से अधिक पहचानते थे वेणु। उनके बाहर रहने पर वेणु का उनके लिए चिंतित होना फोन करना सौ तरह की हिदायतें देना, तब यह सब परवाह या प्रोटेक्शन नहीं पजेसिवनेस या शक जैसा कुछ लगता था। व्यक्तिगत स्वतंत्रता में अनाधिकार हस्तक्षेप लगता था। तब कभी-कभी इस प्रोटेक्टिव नेचर पर मंजूषा खीज जाती थी, गुस्सा हो जाती थी, "डोंट बी सो पजेसिव वेणु। क्या जब देखो तब जासूस की तरह खबर लेते रहते हो।"

आज मंजूषा कभी भी आए कितनी भी देर से आए कोई ख्याल रखने वाला नहीं है। कोई पूछने वाला नहीं है। चिंता के मारे कोई दरवाजे पर आँख लगा कर राह नहीं तकता, आंगन के गेट को पकड़े कोई उत्सुकता से मंजूषा की कार की आहट पर मन अटका कर खड़ा नहीं रहता। कोई व्यग्र होकर पूछता नहीं है, 'आज इतनी देर क्यों हो गई मंजूषा'

 काश पहले यह अंतर समझ आ जाता कि यह पजेसिवनेस नहीं प्रोटेक्टिवनेस है। क्यों हम उम्र भर सामने वाले की भावनाओं को समझ नहीं पाते, उसकी कदर नहीं करते और फिर उसी चीज के लिए बाकी जीवन तरसते रह जाते हैं। मंजूषा की आंखें अब बरसने लगी, 'तुम कहां चले गए वेणु, देखो ना आज कितनी देर हो गई थी मुझे पर तुमने एक बार भी नहीं पूछा कि मंजूषा कहां हो? कब आओगे, जल्दी आओ। आज कोई नहीं है मंजूषा की परवाह करने वाला, किसी को सरोकार नहीं है। तुम कहां चले गए देखो तुम्हारे बिना कितनी अकेली हो गई है तुम्हारी मंजूषा।’

 सामने लगी तस्वीर में वेणु स्थिर भाव से मुस्कुरा रहे थे।


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