Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

वड़वानल - 4

वड़वानल - 4

6 mins
444


भरे–पूरे, सुदृढ़ शरीर का यादव गुरु से दो–एक साल बड़ा था और सीनियर था। गुरु स्वभाव से आक्रामक प्रवृत्ति का था। वेंदुरथी पर छोटे–से आक्रामक गुट का वह नेता भी था।

‘‘हिन्दुस्तानी सैनिक ब्रिटिश सैनिकों से किस बात में कम हैं ?’’ यादव पूछ रहा था। ‘‘हम उनसे बढ़कर ही हैं। बिना थके बीस–बीस मील तक मार्च कर सकते हैं, हमारे गनर्स का निशाना अचूक होता है, यह कई बार सिद्ध हो चुका है। हमारे कम्युनिकेटर्स उनके जैसे ही कार्यकुशल हैं। फिर गोरे सैनिकों और हिन्दुस्तानी सैनिकों के वेतन में फर्क क्यों है ? सुविधाओं में अन्तर क्यों ? हमारे साथ गुलामों जैसा बर्ताव क्यों किया जाता है ?’’ यादव गुस्से से लाल हो रहा था।

गुरु, यादव और उनके समान संवेदनशील दोस्तों के मन का असन्तोष बढ़ता जा रहा था। उनकी नजरों में अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने वाले स्वतन्त्रता प्रेमी नौजवान तैर रहे थे। उनके जिस्म पर पड़े लाठियों के निशान, छाती पर झेली गई गोलियाँ इन संवेदनशील सैनिकों को बेचैन कर रहे थे।

‘‘क्या इस समाज के प्रति, देश के प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं ? कितने दिन हम यह सब बर्दाश्त करेंगे ? अंग्रेजों के हाथ मजबूत करना क्या देश के प्रति गद्दारी नहीं है ?’’ जैसे गुरु के मन के सवाल ही यादव के मुख से फूट रहे थे।

‘‘हम नौसैनिक हैं। हमने जानबूझ कर अपनी निष्ठा महारानी को समर्पित की है–––’’ उसे शपथ–परेड की याद आ गई।

मगर विद्रोही मन पूछ रहा था, ‘‘कौन महारानी ? उससे सम्बन्ध क्या है ? मेरे देश को, मेरे देशवासियों को पैरों तले दबाकर रखने वाली महारानी से मुझे कुछ लेना–देना नहीं है।’’

दोनों के मन में अब एक ही सवाल था। ‘इस तरह, नपुंसक बनकर हम कितने दिन खामोश रहेंगे ?’

 महायुद्ध की गड़बड़ थी। सैनिकों को चौबीसों घण्टे कहीं भी जाने के लिए तैयार रहना पड़ता था। कभी–कभी कुछ दिनों के लिए कॉम्बेट एक्सरसाइज के लिए तो कभी–कभी बदली पर। कॉम्बेट एक्सरसाइज करना जान पर आता था। पैरों में भारी–भारी एंक्लेट शूज, पीठ पर हैबर सैक, सिर पर हेलमेट और कन्धे पर पन्द्रह पाउण्ड की बन्दूक उठाए दिन–रात चलाया जाता था। लड़ाई की रंगीन तालीम की जाती। कॉम्बेट में गोरे सैनिक हुआ करते थे, हवाई दल और नौदल के सैनिक भी होते।

''Hey, You Able seaman, Come here'' नया–नया कमिशन्ड और कॉम्बेट एक्सरसाइज की एक प्लेटून का प्रमुख लेफ्टिनेंट जोगिन्दर एक गोरे नौसैनिक को बुला रहा था।

‘‘येस’’ गोरा एबल सीमेन, जोसेफ, जोगिन्दर के पास आकर अकड़ से बोला:

"'Have you Seen me?''

''Yes''.

''Then why don't you Salute me?'

जोसेफ की हँसी में व्यंग्य छिपाए नहीं छिप रहा था।

''Don't laugh. Answer me.'' जोगिन्दर की आवाज ऊँची हो गई थी।

''Don't Shout. You know, you have received viceroy Commission and I am not Supposed to Salute you. Don't expect it from me. Go to bloody natives. They will salute you.'' और जोसेफ लापरवाही से वहाँ   से   निकल   गया।

‘‘ये अधिकारी इस अपमान को बर्दाश्त क्यों करते हैं ?’’ गुरु अपने आप से पूछ रहा था। ‘‘क्या पैदल सेना और हवाई सेना में भी ऐसा ही होता है ?’’

 गुरु की WT Office में चार से आठ बजे की ड्यूटी थी। लगातार मेसेज आ रहे थे। हाथ निरन्तर चल रहे थे। एक प्रवाह था सन्देशों का। सारे मेसेज कोड ड्रेस – सांकेतिक-आँकड़ों का जंजाल,  यदि  एक  भी  आँकड़ा  बदल  जाए  अथवा गलत  हो  जाए  तो  अर्थ  का  अनर्थ  हो  जाता।  ऐसा  लगता  कि  लिखते–लिखते  हाथों की  उँगलियाँ  टूट  जाएँगी,  आँकड़े  दिमाग  को  लिबलिबा  कर  देते,  डिड  और  डा के   अलावा   कुछ   और   सुनाई   ही   नहीं   देता।

‘‘ड्यूटी खतम करके सुबह सात बजे तक लम्बी तानूँगा,’’ उकताया हुआ गुरु   सोच   रहा   था।

‘‘गुरु, you are transferred to Calcutta.'' गुरु     की     वॉच     का     राठोड़     बतला रहा था। ‘‘रात   को   दस   बजे   एर्नाकुलम   स्टेशन   पर   जाना   है।’’

''Don't Joke.'' गुरु   को   विश्वास   ही   नहीं   हो   रहा   था।

''By God. ये देख, अभी–अभी मेसेज डीस्क्रिप्ट किया है। तू अकेला ही नहीं,   अच्छे–खासे पच्चीस लोग   हैं।’’

गुरु   के   लिए   यह   खबर   अनपेक्षित   थी।

‘‘कलकत्ता जाना यानी तीन दिन का सफर––– ड्यूटी खत्म होते ही तैयारी करनी   पड़ेगी... धोबी   से कपड़े...   राव   को   दिये   हुए   जूते...  बेल्ट   वापस   करना   है...’’

मन  ही  मन  कामों  की  गिनती  हो  रही  थी।  ‘‘सिर्फ  दो  घण्टे  हैं... इतने  सारे  काम...भूल   जा   बेटा   आराम   और   नींद   के   बारे   में।’’

उसे  याद  आया,  अलमारी  में  सिर्फ  बारह  आने  हैं।  मन  ही  मन  उसने  नौसेना और   महायुद्ध   को   गालियाँ   दे   डालीं।

 सेना के तीनों दलों के सैनिकों से प्लेटफॉर्म खचाखच भरा था। इनमें अधिकांश हरे  खाकी  रंग  की  वर्दियों  वाले  पैदल  सैनिक  थे।  हवाई  दल  और  नौदल  के  सैनिकों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी। पैदल सैनिक अपनी–अपनी रेजिमेन्ट के अनुसार फॉलिन  हो  गए  थे।  मगर  नौदल  और  हवाई  दल  के  सैनिक  झुण्डों  में  खड़े  थे।

''You bloody Indian fools, Come on get in Fallin hurry up'' एक गोरा अधिकारी चिल्लाया।

सारे सैनिक फॉलिन हो गए।

''Right turn, double march, speed up, up your knees.'' गोरी लीडिंग ने उनका चार्ज सँभाल लिया था.

स्टेशन पर आए हुए गोरे सैनिक, गोरे सिविलियन्स, उनकी मैडमें उनकी ओर देखकर हँस रहे थे। बीच–बीच में कोई चिल्ला देता, ''Come on Speed up, Dress up''.

मगर गोरे सैनिक आजादी से पूरे स्टेशन पर हँसते–खिलखिलाते हुए घूम–फिर रहे थे। गुरु शर्म से मरने–मरने को हो गया।

गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आई और जिस तरह गुड़ के डले से चींटे चिपकते हैं उसी तरह सैनिक कम्पार्टमेंट से चिपक गए। हालाँकि ये मिलिट्री स्पेशल थी, फिर भी उसमें डिब्बे कम और सिपाही ज्यादा होंगे इस बात को लोग समझ रहे थे। हरेक की यही कोशिश थी कि कम से कम बैठने के लायक जगह तो मिले।

हिन्दुस्तानी सैनिकों के लिए पचास सीटों वाला एक कम्पार्टमेंट आरक्षित था, मगर उनकी संख्या सौ से ज्यादा थी। सारे सैनिक भेड़ों के समान डिब्बे में घुस गए। गुरु ने फुर्ती से काम लिया और खिड़की के निकट की सीट हथिया ली। अब कलकत्ता तक कम से कम बैठकर तो जाया जा सकता था।

‘‘क्या अगले कम्पार्टमेंट में जगह है ?’’ बाहर प्लेटफॉर्म पर घूम रहे सैनिक से अन्दर सिकुड़कर बैठा सिपाही पूछ रहा था।

‘‘अगले पाँच डिब्बों में खूब जगह है, मगर वे सभी गोरों के लिए आरक्षित हैं। साले दरवाजे के पास भी आने नहीं देते।’’

‘‘अरे, वे डिब्बे क्या बढ़िया हैं! इण्टर क्लास के हैं, पंखे हैं, नरम–नरम गद्दे हैं। मजा है सालों की!’’ दूसरे लोग ईर्ष्या से बोले।

‘‘उनकी गाँ––– फूली–फूली, लाल–लाल इसलिए उन्हें नर्म–नर्म सीट हम काले, हमारी गाँ––– छुहारों जैसी, झुर्रियों वाली, चमड़ी निकल जाए तो भी परवाह नहीं, इसलिए हमें लकड़ी की बेंचें!’’ पहले ने समझाते हुए कहा।

गाड़ी चलने लगी और कम्पार्टमेंट में सिपाही एडजस्ट हो गए। सिगरेटें सुलग उठीं ताश की बाजी शुरू हो गई। हलके–फुलके मजाक होने लगे। वातावरण का तनाव खत्म हुआ। सैनिक सिरों पर मँडराते महायुद्ध के काले बादलों के बारे में भूल गए गुरु को इस सबमें दिलचस्पी नहीं थी। वह एकटक खिड़की से बाहर देख रहा  था।  बाहर  अँधेरा  गहराता  जा  रहा  था।  गुरु  ने  डिब्बे  के  अन्दर  नजर  दौड़ाई। अधिकांश   सैनिकों   को   वह   जानता   था।

सामने बैठा हुआ दुबला–पतला, काला–कलूटा, तीखे नाक–नक्श वाला दत्त गुरु  को  हमेशा  रहस्यमय  प्रतीत  होता,  उसकी  आँखों  में  दृढ़  निश्चय  की  चमक थी। गुरु को उसके बारे में हमेशा जिज्ञासा रहती थी। इस जिज्ञासा के कारण ही   वह   उससे   युद्ध,   अंग्रेज़ी हुकूमत,   रूसी   क्रान्ति आदि विविध   विषयों   पर   बातचीत किया करता था। उसके अंतरंग को जाने का प्रयत्न करता। मगर उसके अथाह मन की टोह लगती ही नहीं थी। ऐसा लगता मानो घुप अँधेरे में घुस गए हों।

‘‘क्या रे ? तबियत ठीक नहीं है क्या ?’’ गुरु ने दत्त से पूछा, ‘‘नहीं, ऐसी कोई   बात   नहीं।   मैं   ठीक   हूँ।’’   दत्त   ने   बाहर   देखते   हुए   जवाब   दिया।

‘‘फिर चेहरा क्यों उतरा हुआ है ? क्या सोच रहे हो ?’’

 ‘‘कहाँ भेज रहे हैं हमें ?’’   चेहरे   के   भावों   में परिवर्तन   लाए   बिना   दत्त   ने   पूछा।

‘‘कलकत्ता...’’

‘‘फिर  वहाँ  से ?’’

‘‘मालूम नहीं,   मगर   शायद   सीमा   पर...’’

‘‘मतलब,   हमें   लड़ना   होगा ?’’

‘‘बेशक।’’

‘‘हम  क्यों  लड़ें ?  किसलिए ?’’

दत्त  ने  फिर  अपनी  नजर  बाहर  की  ओर  घुमा  ली।  वह  मानो  नियति  से ही सवाल पूछ रहा था। गुरु समझ गया कि दत्त का सवाल इतना सीधा और आसान नहीं है। ‘हम सैनिक हैं। लड़ना हमारा कर्त्तव्य है।’ इस जवाब को उसने होठों से बाहर नहीं आने दिया और सोच में डूबे दत्त के चेहरे की ओर देखता रहा।

‘‘हिन्दुस्तान पर किसी ने हमला किया है ? क्या सीमा पर कोई ख़तरा है ? नहीं ना ? फिर हम क्यों लड़ें ? शायद हिटलर कल...कल की बात कल... आज क्यों   लड़ें   हम ?’’   दत्त   पुटपुटा   रहा   था।

शायद  मैं  कुछ  ज्यादा  ही  कह  गया,  यह  सोचकर  दत्त  चुप  हो  गया  और खिड़की   से   बाहर   देखने   लगा।

गाड़ी की गति अब तेज हो गई थी। दत्त की अस्पष्ट बातों पर गुरु विचार कर रहा था - ‘‘हम पर तो किसी ने हमला किया नहीं है, मगर दुनिया पर छाया हुआ फासिज़्म का संकट––– क्या पहले अपने जलते हुए घर की रक्षा करनी चाहिए...जिसने हमारा घर जलाया है, जला रहा है उसकी बातों पर विश्वास करके–––’’

कुछ देर के लिए वह स्वयं को भूल गया। कोचीन से कलकत्ता - पूरे चार दिनों का सफर, कब खत्म होगा यही सब सोच रहे थे। महीने के अन्तिम दिन थे, इसलिए जेब में पैसे बहुत कम कलकत्ता से आगे कहाँ जाना है, तनख्वाह कब और कहाँ मिलेगी - इस बात की कोई जानकारी नहीं। बस अँधेरा ही अँधेरा। मिलिट्री स्पेशल पूरे वेग से अँधेरे को चीरती हुई जा रही थी। हर चार घण्टे बाद वह कोयला और पानी लेने के लिए स्टेशन पर

रुकती और लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती। हर डिब्बे में ठूँस–ठूँसकर भरे हुए सिपाही यूँ बाहर आते जैसे फटे हुए बोरे से अनाज के दाने फिसल रहे हों। कोई पैर सीधे करने के लिए उतरता तो कोई पानी का इन्तजाम करने के लिए।


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama