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नया ज़माना

नया ज़माना

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“आज़ क्या खाना बनाने वाली नहीं आयेगी ?” सासू माँ बहू विभा से पूछती हुई रसोई से बाहर आती हैं।

“नहीं आज रविवार की छुट्टी जो है माँ जी।” बहू ने सहज़ता से ज़वाब दिया।

“इस दिन छुट्टी ना दिया करो, सब घर में होते हैं। एक ही दिन तो मिलता है सबको आराम करने का उस दिन भी छुट्टी करके बैठ जाती है जैसे कहीं की महारानी हो !” सासू माँ बड़बड़ाते हुए पोत बहू के कमरे में प्रवेश करती हैं।”

“अरे यह क्या ! तुम अभी तक सोई हो उठो फटाफट ! ना जाने क्या ज़माना आ गया है ? बहुओं को तो सर पर बैठा रखा है और लड़कों से सारा काम करवाते रहते हैं घर का भी और बाहर का भी। घोर कलयुग आ गया है। अब तो राम ही बचाये इस संसार को !” सासू माँ राम-राम का शब्द कहते हुए बाहर आती हैं।

“माँ देखो ना दादी क्या बोले जा रही हैं ? पिछले रविवार को तो कुछ नहीं बोली थीं जब मेरी बारी थी और आज जब……” कहते-कहते सासू माँ की गोदी में आ सिमटती है।

“तुमने ही इसे सर पर चढ़ा रखा है बहू यह बात हमारे गले से तो नीचे ना उतरेगी। कुछ तो करना पड़ेगा” सासू माँ गर्दन हिला-हिलाकर बोलती हैं।

अब तक की सारी राम कहानी समीर (सासू माँ का बेटा) कमरे में से सुन रहा था। बाहर आता है और माँ को हौले से कौली भरकर बैठाता है और समझाते हुए कहता है “माँ आज ज़माना बदल गया है। बहू भी तो किसी के घर की बेटी है, उसने भी तो दिन-रात मेहनत करके अपना कैरियर बनाया है और तो और हमारे बेटे जितनी पगार भी तो लेती है। फिर यह ही क्यों रसोई में जाये बेटा क्यों नहीं ?”

“जैसा ठीक समझो वैसा करो हमारा समय तो निकल गया अब तुम नये ज़माने के लोग जो ठहरे।” बड़बड़ाते हुए अपने कमरे में चली जाती हैं।


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