नई सोच

नई सोच

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घर की रसोई से भीनी-भीनी ख़ुशबू आ रही थी। पढ़ाई में भी मन नहीं लग रहा था। थोड़ी देर बाद राहुल रसोई में प्रवेश करता है और माँ से पूछता है “माँ आज कोई त्योहार है क्या?”

“नहीं तो” माँ खीर बनाते हुए

“फिर कोई घर पर आने वाला होगा?” राहुल जिज्ञासावश पूछता है।

“कोई नहीं बस पंडित जी को बुलाया है वो आने वाले होंगे।” माँ फिर से काम में लग जाती हैं।

“पंडित जी क्यों माँ”?

“अरे आज़ तेरे बाबा जी का श्राद्ध है।”

“माँ क्या यह ख़ुशी की बात है कि हमारे बाबा जी अब हमारे बीच नहीं रहे?”

“कैसी बहकी-बहकी बातेंं कर रहा है, भला! किसी के दुनिया से जाने पर ख़ुशी होती है कभी।”

"माँ जब माँ ख़ुशी नहीं होती तो इतने पकवान क्यों? यह सब तो ख़ुशी में मनाए जाते हैं, ग़म में थोड़े ही ना।”

“मैं तो वही कर रही हूँ जो तेरी दादी ने मुझे बताया था।” कहकर माँ काम में लग जाती है। राहुल जिसका मन नई उछाल ले रहा था गंभीर मुद्रा में वहाँ से चला जाता है। अब ना उसे कोई ख़ुशबू आ रही थी और न मुँह में पानी! बस आँखें नम होती जा रहीं थीं, बाबा जी के साथ बिताए लम्हों को याद करते हुए! 



 




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