नदी
नदी
मैं नदी हूँ। मैं पर्वतों के राजा हिमालय और प्रकृति की पुत्री हूँ। पापा की गोद और माँ का आँचल काफ़ी भाता है मुझे। मुझे कई नाम से पुकारा जाता है जैसे- गंगा, यमुना, मंदाकिनी आदि। माँ- पापा की गोद भला कौन छोड़ना चाहता है पर मेरा जन्म ही लोंगों की भलाई के लिए ही हुआ है इसलिए अपना बोरिया-बिस्तरा लेकर मैं तो निकल पड़ी घर से।
‘जल ही जीवन है’ को क्रतार्थ करने मैं रोज़ कल-कल करके बहती रहती हूँ ताकि सबके जीवन में जल की आपूर्ति पूरी कर सकूँ। किसान की फसलें, लहलहाते खेत, बिजली बनाना, और न जाने कितने काम मुझ पर ही निर्भर हैं। मेरे लिए न दिन होता है न रात बस चलते रहना ही मेरा रोज़ का काम है। मैं भारत की शोभा हूँ - झरनों के रूप में। मेरा जल बहुत पवित्र माना गया है इसको पूजा के काम में भी लिया जाता है। कई लोग तो मेरे जल में स्नान करके अपने पाप भी धोते हैं ऐसा भारत में माना जाता है।
पहले मैं बहुत ख़ुशी से अपनी रफ़्तार लेकर बहती थी परंतु अब मुझे साँस लेने में तकलीफ़ होने लगी है। क्योंकि अब कारख़ानों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा, पूजा के फूल, खंडित मूर्तियाँ और भिन्न-भिन्न तरीक़े की गंदगी लोग मेरे अंदर समाहित कर देते हैं जिससे मैं निरंतर प्रदूषित होती जा रही हूँ। इसका असर आप सभी को देखने में आ रहा है। कहीं पर बाढ़ के रूप में तो कहीं सूखे के रूप में।
अगर यही हाल रहा तो वह समय दूर नहीं जब मैं दुनियाँ से बोझिल हो जाऊँगी और सिर्फ़ किताबों में भी नहीं मोबाईल में सिमटकर रह जाऊँगी। इसलिए मैं हाथ जोड़कर आप सभी से विनती करती हूँ कि मेरी पहचान मिटाओ नहीं। मैं नदी हूँ, मुझे नदी ही रहने दो सूखा गंदा सरोवर न बनने दो, मुझे ख़ुशी-ख़ुशी सागर में मिलने का मौक़ा दो।