दे वरदान वाग्मी देवी माँ
दे वरदान वाग्मी देवी माँ
बसंत का आगमन शीत व ग्रीष्म ऋतु का मध्य भाग, वास्तव में एक मनोहारी समय होता है। इस समय कहते हैं कि सरसों के पीले फूल वातावरण को और अधिक सुंदर बना देते हैं। यह समय केवल कवि की कल्पना तक ही सीमित नहीं रहता, अपितु इसमें हर किसी के मन में एक उल्लास की महक और चहक समाई होती है। वन-उपवन भी पुष्पों की महक से खिल उठते हैं। युगों-युगों से इस पर्व को विवेक और बलिदान का प्रतीक माना जाता रहा है। इसमें एक प्रकार की मस्ती छिपी होती है जो लौकिक और अलौकिक होती है।
शांति की प्रतीक, श्वेत वस्त्र धारण किए माँ सरस्वती, ज्ञान की देवी के अवतरण का पर्व ‘बसंत पंचमी’ सबके दिलों में अपनी अलग पहचान बनाने में सदियों से सफल रही हैं। कुछ का मानना है कि इस दिन से एक रसधारा बहती है, जिसके अंदर संगीत, साहित्य व कलाएँ पूर्ण रूप से समाहित होती हैं। वाग्मी देवी जो सरस्वती माँ का दूसरा नाम है, बसंत पंचमी के दिन इनके आविर्भाव के रूप में पूजा की जाती है। कहा जाता है कि जिस किसी की जिह्वा पर इनका आसन होता है अर्थात ये बैठ जाती हैं, वह व्यक्ति कुशाग्र बुद्धि का हो जाता है।
विधा की देवी सरस्वती माँ को कई नामों से पुकारा जाता है जैसे- शारदा, हंसवाहिनी, वागेश्वरी, वीणापाणि, भारती आदि। इनके सिर्फ़ मंत्र उच्चारण मात्र से भी व्यक्ति के ज्ञान चक्षु खुल जाते हैं और वह आत्मविश्वास से लबालब भर जाता है, फिर चाहे वह शैक्षिक हो या आध्यात्मिक। सरस्वती मंत्र के उच्चारण से वाणी दोष भी दूर होता है। अगर समय की कमी हो तो केवल एक शब्द ’एं’ का उच्चारण भी कर सकते हैं।
विधा ही वह एक ऐसा अमूल्य धन है जो दान देने से अधिक बढ़ता है। विधा हमें विनय देती है, जिससे हमारे अंदर किसी काम को करने की क्षमता का विकास होता है, और हम उस कार्य को अंजाम तक पंहुचा देने में सफल होते देखे गए हैं। बस यही वास्तव में हमारा असली धन होता है, जो हमें आगे बढ़ाता है।
बसंत ऋतु हमेशा से मानव जाति को सम्मोहित करती आई है। अगर हमें इसकी छवि को यूँ ही बनाए रखना है तो वातावरण को शुद्ध रखना होगा। चारों ओर स्वच्छता रखनी होगी, ज़्यादा से ज़्यादा पेड़-पौधे लगाने होंगे। नदियों को भी प्रदूषण मुक्त बनाना होगा। इस नेक काम में सरकार का साथ देना होगा।