एक दिया भारत के नाम का
एक दिया भारत के नाम का


एक अधेड़ उम्र की महिला तक़रीबन 90 के क़रीब। सुनाई, दिखाई भी ठीक से नहीं देता था। छड़ी के सहारे से रोज़ मंदिर तक आतीं, दीपक जलातीं, और घंटों तक वहीं बैठी रहतीं। मन ही मन कुछ बुदबुदातीं, जब दीपक बुझ जाता तब कहीं जाकर वह घर के लिए निकलतीं।
यह सब एक महीने से निरंतर मंदिर आ रही भावना देख रही थी! उसकी उत्सुकता बढ़ती जा रही थी कि यह महिला आख़िर ऐसा रोज़ करतीं क्यों हैं? आखिर इसके पीछे माँज़रा क्या है? उसका पूजा करने में भी मन नहीं लगता था।
एक दिन मंदिर के पुज़ारी जी से उसने पूछ ही लिया “ये माँजी रोज़ ऐसा क्यों करतीं हैं?”
पुजारी जी बोले “ये तो जिस दिन से हमें आज़ादी मिली है 15 अगस्त सन् 1947 से रोज़ इसी प्रकार आती हैं, दिया जलाती हैं और भारत की सलामती की प्रार्थना भी करती हैं।”
भावना उत्सुकतावश पूछती है! “पर ये ऐसा करती क्यों हैं?”
पुजारी जी कहते हैं, “इनके पति एक स्वतंत्रता सेनानी थे, भारत को आज़ादी दिलाने में उनकी बहुत बड़ी भूमिका रही, अपने देश की ख़ातिर लड़ते-लड़ते शहीद हो गए थे।”
इनका इसी में विश्वास है कि अगर सब भारतवासी रोज़ एक दिया प्रज्वलित करें और साथ में प्रार्थना भी करें तो भारत की तरफ़ कोई आँख उठाकर भी नहीं देख पाएगा। सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरू और उनके पति जैसे अनगिनत स्वतंत्रता सेनानियों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा।
“सही बात है जब हम अपने घर की सलामती के लिए रोज़ दिया जलाते हैं, तो जिस धरती पर हमने जन्म लिया है, उसकी सलामती की ख़ातिर, एक दिया जलाना तो प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य बनता है।” अब भावना की समझ में आ गया था। वह भी उनका साथ देने रोज़ मंदिर आने लगी।