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Shagufta Quazi

Inspirational Tragedy

4.6  

Shagufta Quazi

Inspirational Tragedy

स्त्री धन

स्त्री धन

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कुलीन परिवार के सुसंस्कारी विजय सिन्हा का ब्याह कुलीन, शालीन, सुसंस्कारी कन्या सुप्रिया से हुआ। गोरी चिट्ठी छरहरी काया, काले घने लंबे केश, नर्गिसी आँखें, लंबी खड़ी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों से नाज़ुक गुलाबी होंठों से विजय किसी लिहाज़ से उन्नीस न थे। सुडौल गठा शरीर, लंबा कद, सुनहरा रंग, काले घने केश, बड़ी बड़ी सुंदर आँखों के बीच से निकली तीखी नाक के नीचे गुलाबी होठों पर सजी काली मूंछें और सोने में सुहागा अफ़सर का पद। इस जोड़ी को देखने वाले के मुह सेँ अनायास ही निकलता- "लगता है ये दोनों एक-दुजे के लिए ही बने हैं, भगवान ने बड़ी फ़ुर्सत में इन्हें बनाया है !"

जोड़ियाँ आसमान से बनकर आती है वाली बात यहाँ खरी उतरती थी।

एक दिन सिन्हा साहब के सहकर्मी पाटिल साहब की शादी की 25 वीं वर्षगाँठ की पार्टी में सिन्हा दंपत्ति पहुँचे। मेहमानों से मेल मिलाप, हँसी ठिठोली के बीच स्वादिष्ट गरमा गरम व्यंजनों के बीच मिसेस पाटिल के नए डिज़ाइन के वज़नदार कंगनों की चर्चा गर्म थी, जो पाटिल साहब ने इस अवसर पर पत्नी को तोहफे में दिए थे। कंगन दे मिसेज सिन्हा की स्त्री सुलभ अभिलाषा का जागना स्वाभाविक था। विवाहित स्त्री की श्रृंगारिकता वस्तुओं में सर्वोपरी स्थान रखने वाली वस्तुओं में गहनों की सूची में कंगनों का स्थान महत्वपूर्ण होता है। वैसे भी स्त्री व गहनों का चोली दामन का साथ होता है।

पार्टी से घर पहुँचते ही मिसेज सिन्हा ने अगले महीने आने वाली उनकी शादी की 25 वीं वर्षगांठ पर शानदार पार्टी आयोजित करने तथा तोहफे में मिसेस पाटिल के कंगनों जैसे कंगनोंं की फ़रमाइश पति से कर दी। प्राणों से प्रिय पत्नी सुप्रिया की हर फ़रमाइश सिन्हा साहब हमेशा पूरी करते आए थे तो आज ना कहने का प्रश्न ही ना था, सो उन्होंने हामी तो भरी किंतु अपने चेहरे के हाव-भाव पत्नी से छिपा न सके। बच्चाें की परवरिश, शिक्षा तथा भविष्य में उनके शादी-ब्याह के खर्चों के बीच कंगन पर बड़ी रकम खर्च करना पति के लिए मुश्किल काम के साथ असंभव होगा, इस बात को पत्नी भली-भांति जानती थी। अक्लमंदी व समझदारी से अगले ही पल वज़नदार तरीके से अपनी बात रखी, "सुनिए, मुझे किसी की देखादेखी करने की आदत नहीं, आप तो जानते हैं मैं हमेशा अपनी पसंद के गहने कपड़े पहनती हूँ ! हूबहू मिसेज पाटिल के कंगन जैसे कंगन मेरे हाथों में देख लोग कहेंगे कि मैंने उनकी कॉपी की है, जो मुझे क़तई पसंद नहीं !"

पत्नी की बात में छिपे मर्म को समझ सिन्हा साहब ने मंद मुस्कान के साथ हौले से गर्दन हिला चुटकी काटी, " क्या तुम सच कह रही हो ? यह मैं क्या सुन रहा हूँ ?” स्त्री भी कभी गहनों का मोह त्याग सकी है भला ? बात यहीं खत्म हो गई !

समय के साथ बेटों की अच्छी नौकरियाँ लग गई ! तीनों बच्चों की शादियों की जिम्मेदारी को उन्होंने बखूबी निभाया। गृहस्थी की सारी जिम्मेदारियों से बरी होने के साल भर बाद सिन्हा साहब को नौकरी की जिम्मेदारी से भी मुक्ति मिल गई। सेवानिवृत्ति पर प्रोविडेंट फंड एवं ग्रेच्युइटी की अच्छी खासी रकम हाथ आई। पत्नी की वर्षों पुरानी कंगनों की फरमाइश को वह इन्हीं पैसों से पूरा करने की ठान बैठे थे। खूबसूरत डिज़ाइन के कंगन खरीद बाकी की रकम बैंक में सुरक्षित जमा करवा दी।

सेवानिवृत्ति के बाद उनकी शादी की 50 वीं वर्षगांठ थी। संयोग से आए इस सुंदर सूअवसर पर उन्होंने शानदार पार्टी का आयोजन किया। बेटी-दामाद को खास न्योता देकर बुलाया गया। पार्टी में जाने को तैयार अपने सभी बच्चों के सामने पत्नी को तोहफे में कंगन दिए। आधी सदी से साथ रहते-रहते पति-पत्नी एक-दूजे के मन की बात बिना कहे ही जान जाते थे। पत्नी जानती थी आज सिन्हा साहब उन्हें तोहफ़े में कंगन जरूर देंगे। सुंदर चमकीले कंगनों को देख पत्नी की आँखों में खुशी की चमक और चेहरे पर उभरे खुशी के भावों को देख उन्हें सुकून मिला। इस चाह को वे वर्षों से सीने में दबाए बैठे थे। कंगन हाथ में पत्नी ने कहा, "इतने व ज़नदार कंगन लाने की क्या आवश्यकता थी ! इस अधेड़ उम्र में मुझे कंगन पहना देख लोग मेरा मज़ाक उड़ाएंगे, कहेंगे बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम ! यह तो बेटी-बहुओं के पहनने के दिन है। जवान बच्चों के सामने उन्हें पहनना मुझे शोभा ना देगा"

इसके आगे पत्नी के मुँह से निकलने वाले शब्दों को रूमानी चाल में- "ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हसीं और मैं जवां।" कह विराम लगा दिया ! "अरे प्रिये तुम बूढ़ी कहाँ हुई हो और लोगों की परवाह करना छोड़ दो, अपने दिल की सुनो ! गहने स्त्री धन होते हैं, इन्हें संभालकर रखना, कल कर मैं रहूँ या ना रहूँ _बुरे वक्त में यही तुम्हारे काम आएंगे !"

पत्नी ने प्रतिक्रिया व्यक्ति की, "क्यों जी, आप ऐसी बातें क्यों कर रहे हो, हमारे दो-दो कमाऊ सपूत है। हमें चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं।"

समय का चक्र बुढ़ापे की बीमारियों से धीरे-धीरे स्वाभिमानी सिन्हा साहब दवाखानों व दवाइयों के खर्चों का भार बेटों के रुख़ को देखते हुए उन पर नहीं डालना चाहते थे। पत्नी को निर्देश दे कहने लगे, "मेरी बीमारी के खर्चों का भार तुम बच्चों पर मत पड़ने देना, महंगाई का ज़माना है, उनकी गृहस्थी, बाल-बच्चों के खर्चे है। बैंक में जो रकम मैंने सुरक्षित जमा करवाई थी उसी से मेरा इलाज करवाओ। जब पत्नी ने बेटों से यह बात कही तो औपचारिक ना नुकुर के पश्चात उन्होंने इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।

दिन-ब-दिन सिन्हा साहब की हालत गिरती जा रही थी। दवाओं, दुवाओं ने काम करना बंद कर दिया था। मौत से जूझती जिंदगी एक दिन हार गई। पति के गुज़रने के बाद पत्नी की बीमारियों ने जोर पकड़ा। अकेलेपन से बड़ा दुनिया में कोई रोग नहीं होता। पति की तरह बेटों की सोच को भली-भांति समझ बची हुई रकम से वह अपनी बीमारी के खर्चे पूरे करने लगी। जमा राशि कब तक चलती, पैसों के ख़त्म होते-होते सहसा उन्हें गहनों का खयाल आया जो केवल अलमारी की शोभा बढ़ा रहे थे। अलमारी खोल गहनों का डिब्बा निकाला, डिब्बा खोलते ही उनकी नज़र कंगनों पर पड़ी। मन में निश्चय कर एक कागज में कुछ लिखा और घड़ी कर कंगन के डिब्बे में डाल कर बंद कर दिया। कुछ दिनों बाद उनसे मिलने आई बेटी को उन्होंने कंगन का डिब्बा खोल चिट्ठी पढ़वाई। बेटी ने रुआंसी हो गर्दन हिला कर सहमति दे दी।

एक के बाद दूसरी बीमारी को झेलती बूढ़ी काया कब तक टिकती। डॉक्टरों ने भी एक दिन जवाब दे दिया। बेटी से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो बेटों ने फ़ौरने बहन को खबर कर दी, "माँ बहुत बीमार है, सीरियस है, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया है ! तुमसे मिलना चाहती है, फ़ौरन चली आओ।"

बेटी-दामाद फ़ौरन पहुँच गए। माँ के प्राण बेटी में अटके थे, यमराज ने भी उन्हें बेटी से मिलने की मोहलत दे दी। उधार की साँसें चल रही थी, बेटी ने पहुँचते ही माँ को अश्रुपूरित नेत्रों से जी भरकर निहारा, सस्नेह माँ का हाथ अपने हाथ में लिया और स्नेह से सहलाने लगी। माँ ने जी भरकर बेटी को हसरत भरी निगाहों से देखा, लब हिले किंतु शब्द गले में ही अटके रहे, आँखें पथरा गई, हाथों की पकड़ ढीली पड़ गई।

रोती-बिलखती बेटी के कानों में दोनों बेटों की आपस की खुसरपुसर सुनाई पड़ गई। माँ के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी लेने वे एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे। यह चेहरे के हाव भाव पढ़ बेटी ने माँ की अलमारी खोल कंगन का डिब्बा निकाल भाइयों के हवाले कर दिया। बड़ी हसरत से दोनों ने डिब्बा खोला, चिट्ठी के हाथ आने पर दोनों के मन में समान विचारों ने जन्म लिया कि माँ वसीयत कर गई है। चिट्ठी पढ़ते ही दोनों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगी, चिट्ठी में केवल इतना ही लिखा था, "मेरा अंतिम संस्कार इन कंगनों को बेचकर मिलने वाले पैसों से कर देना।"

बेटों के सिर से माँ के अंतिम संस्कार के खर्च का बोझ उतर चुका था। उन्होंने इसी स्त्री धन से माँ का अंतिम संस्कार कर दिया।


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