Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!
Unlock solutions to your love life challenges, from choosing the right partner to navigating deception and loneliness, with the book "Lust Love & Liberation ". Click here to get your copy!

द्वंद्व युद्ध - 03

द्वंद्व युद्ध - 03

12 mins
486


अपने कमरे में आकर रमाशोव, वैसे ही, ओवरकोट पहने-पहने, तलवार भी हटाए बगैर पलंग पर लेट गया और बड़ी देर तक लेटा रहा, बिना हिलेडुले, बगैर किसी संवेदना के, एकटक, छत की ओर देखते हुए। उसका सिर दुख रहा था और कमर टूट रही थी, दिल में भी वैसा ही ख़ालीपन छाया था, जैसे वहाँ कभी कोई विचार, कोई यादें, कोई भावनाएँ उत्पन्न ही न हुई हों; चिड़चिड़ाहट का, बोरियत का भी एहसास नहीं हो रहा था, बस कोई बड़ा सा, अंधेरा सा, उदासीन सा बोझ पड़ा था।

खिड़की से बाहर अप्रैल का उदास और नज़ाकत भरा हरियाला धुंधलका हौले हौले बुझता जा रहा था। बरामदे में उसका सेवक ख़ामोशी से धातू की किसी चीज़ से उलझ रहा था।

 “अजीब बात है,” रमाशोव ने अपने आप से कहा, “मैंने कहीं पढ़ा था कि मनुष्य एक भी क्षण बग़ैर सोचे नहीं रह सकता मगर मैं लेटा हूँ और किसी भी बारे में कुछ भी नहीं सोच रहा। क्या ऐसा ही है ? नहीं, मैं इस समय यह सोच रहा हूँ कि मैं कुछ भी नहीं सोच रहा हूँ, मतलब यह कि दिमाग़ की कोई कल घूमी तो है और अब फिर स्वयँ को जाँचता हूँ, शायद, सोच ही रहा हूँ।”

और वह तब तक इन थकाने वाले, उलझे उलझे ख़यालों में डूबा रहा जब तक कि उसे शारीरिक नफ़रत का एहसास न हुआ: जैसे उसके मस्तिष्क के नीचे कोई भूरा, गन्दा मकड़ी का जाल बहता जा रहा हो, जिससे आज़ाद होना नामुमकिन था। उसने तकिए से सिर उठाया और चिल्लाया, “गैनान!...”

बरामदे में कोई चीज़ झन् से बजी और लुढ़कने लगी- शायद समोवार का पाइप था। सेवक इतनी तेज़ी से और इतनी ज़ोर से दरवाज़े को खोलकर बन्द करते हुए कमरे में घुसा मानो कोई उसका पीछा कर रहा हो।   

“हाज़िर हूँ, महाशय !” गैनान ने सहमी हुई आवाज़ में कहा।

 “लेफ्टिनेन्ट निकोलाएव के यहाँ से तो कोई नहीं आया ?”

 “बिल्कुल भी नहीं, महाशय !” गैनान चिल्लाया।

ऑफिसर और सेवक के बीच के बीच काफ़ी पहले से एक सीधा-सादा, विश्वास का, स्नेह का रिश्ता बन गया था मगर जब बात शासकीय सवालों के जवाब की होती थी, जैसे कि, “सही फ़रमाते हैं, हुज़ूर”, “किसी हालत में नहीं, जनाब”, “आपके स्वास्थ्य की कामना करता हूँ, हुज़ूर”, “नहीं जानता, जनाब” तो गैनान अनचाहे ही काठ जैसी, दबी-दबी, बेसिरपैर की चीख़ के साथ जवाब देता, जैसा कि हमेशा सेना में सैनिक अपने अफ़सरों के साथ बात करते हैं। यह आदत उसमें अपने आप ही तभी से पड़ गई थी जब वह सेना में नया नया भरती हुआ था, और ज़िन्दगी भर के लिए उसमें रह गई थी।

गैनान जन्म से चेरेमिस था, और धर्म से - मूर्तिपूजक। यह आख़िरी बात न जाने क्यों रमाशोव को बहुत अच्छी लगती थी। रेजिमेंट के जवान अफ़सरों के बीच एक बेवकूफ़ सा, बचकाना सा, मज़ाहिया सा मनोरंजक खेल चल पड़ा था: अपने सेवकों को विभिन्न अजीब-अजीब, बेहूदी बातें सिखाना, मिसाल के तौर पर, जब वेत्किन के यहाँ उसके साथी आते तो वह अपने मोल्दावी सेवक से पूछता, “बूज़ेस्कुल, क्या हमारे गोदाम में कुछ शैम्पेन बाक़ी है ?” इस पर बूज़ेस्कुल पूरी संजीदगी से जवाब देता, “बिल्कुल नहीं, जनाब, कल आपने आख़िरी एक दर्जन बोतलें पीने का शौक फ़रमाया था।” 

एक अन्य ऑफ़िसर, लेफ्टिनेन्ट एपिफ़ानव को, अपने सेवक से ऐसे बुद्धिमत्तापूर्ण सवाल पूछने का शौक था जिन्हें वह ख़ुद भी नहीं समझ पाता था, जैसे, “फ्रांस में राजतंत्र की बहाली के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है, मेरे दोस्त ?” और सेवक बिना पलक झपकाए जवाब देता, “सही फ़रमाते हैं, हुज़ूर, यह बड़ी अच्छी चीज़ रहेगी।”

लेफ्टिनेन्ट बबेतिन्स्की ने अपने सेवक को पूरी प्रश्नोत्तरी रटवाई थी और वह भी बड़े आश्चर्यजनक, बेसिर-पैर के सवालों के जवाब बग़ैर हिचकिचाए देता था, जैसे कि, “तीसरी बात, यह क्यों महत्वपूर्ण है ?” 

“तीसरी बात, यह महत्वपूर्ण नहीं है, हुज़ूर” या “इस बारे में पवित्र चर्च की क्या राय है ?” 

“पवित्र चर्च इस बारे में ख़ामोश है, हुज़ूर।” उसका सेवक फूहड़, शोकपूर्ण हावभाव सहित 'बरीस गदुनोव' से पिमेन के स्वगत भाषण का प्रदर्शन किया करता। अपने सेवकों को फ्रांसीसी में बात करने के लिए मजबूर करने का शौक भी काफ़ी लोकप्रिय था। मुस्यो; बोन्न न्युइत, मुस्यो; वुले वु द्यु ते, मुस्यो* और इसी तरह का बहुत कुछ, जो भी दिमाग़ में आता, बोरियत से, तनाव से बचने के लिए, इस सीमित ज़िन्दगी के संकुचित दायरे से दूर जाने के लिए, सेवा से संबंधित बातों के अलावा अन्य किन्हीं मनोरंजन के साधनों के अभाव में।

रमाशोव अक्सर गैनान से उसके देवताओं के बारे में बातें किया करता था, जिनके बारे में चेरेमिसी को काफ़ी कम और बड़ी धुंधली सी जानकारी थी और ख़ासकर इस बारे में भी पूछता कि उसने सम्राट एवम् मातृभूमि के प्रति वफ़ादारी की क़सम किस प्रकार खाई थी। वाक़ई, उसने क़सम बड़े मौलिक ढंग से ली थी। उस ज़माने में ऑर्थोडोक्स लोगों को वफ़ादारी की शपथ का प्रारूप पढ़कर सुनाता था- चर्च का पादरी; कैथोलिक्स को- क्सेन्द्ज़; यहूदियों को-पाव्विन; प्रोटेस्टंटस को, पादरी की अनुपस्थिति में- स्टाफ़-कैप्टेन दीत्स और मुसलमानों को- लेफ्टिनेन्ट बेग-अगामालव, मगर गैनान के साथ विशेष ही बात हुई थी।

रेजिमेन्ट के एड्जुटेन्ट उसके सामने और अन्य दो सिपाहियों के सामने जो गैनान के ही देश के थे और उसी धर्म को मानने वाले थे, तलवार की नोक पर नमक-रोटी का टुकड़ा लाए और उन्होंने उस रोटी को बिना हाथ से छुए, मुँह में पकड़ कर फ़ौरन खा लिया। इस रिवाज का सांकेतिक अर्थ शायद यह था कि मैंने अपने नए मालिक का नमक खा लिया है, अगर मैं बेईमानी करूँ तो मुझे लोहे से दाग़ा जाए.गैनान को, ज़ाहिर है, इस विशिष्ठ रिवाज पर गर्व था और वह ख़ुशी-ख़ुशी इसके बारे में बताया करता।

 और चूँकि हर बार अपनी कहानी में कुछ न कुछ नया जोड़ देता, तो यह बन गई थी एक फन्तासी, अविश्वसनीय रूप से फूहड़ और वाक़ई में एक मज़ाहिया कहानी, जो रमाशोव और उसके यहाँ आने वाले सेकंड लेफ्टिनेन्ट्स को बहुत दिलचस्प लगती।

गैनान अब भी यही सोच रहा था कि लेफ्टिनेन्ट फ़ौरन उसके साथ हमेशा की तरह उसके देवताओं की और उसकी वफ़ादारी की शपथ की कहानी शुरू कर देगा इसलिए वह इंतज़ार में खड़ा रहा और चालाकी से मुस्कुराने लगा मगर रमाशोव ने अलसाकर कहा, “ठीक है, जाओ।”

 “क्या आपके लिए नया फ्रॉक-कोट तैयार करूँ, हुज़ूर ?” गैनान ने भलमनसाहत से पूछा।

रमाशोव चुप रहा, उसका मन डावाँडोल हो रहा था। वह कहना चाहता था- हाँ...फिर-ना, फिर दुबारा-हाँ। उसने बच्चे की तरह रुक रुक कर लम्बी, गहरी साँस ली और उनींदे सुर में जवाब दिया, “नहीं, गैनान...किसलिए, आख़िर...ख़ुदा उन्हें सलामत रखे...चलो भाई समोवार रखो और फिर मेस में जाकर खाना ले आना। बस, ठीक है !”     

“आज जानबूझ कर नहीं जाऊँगा।” ज़िद्दीपन से, परंतु हतबल होते हुए उसने सोचा। 

“हर रोज़ लोगों को बोर करना ठीक नहीं है, और फिर...शायद. मेरे आने से उन्हें कोई ख़ुशी भी तो नहीं होती।”

दिमाग़ को तो यह निर्णय पक्का दिखाई दिया, मगर मन में, कहीं गहरे और चुपके से, चेतना में प्रविष्ट हुए बगैर, एक विश्वास गहराता जा रहा था कि आज भी, कल ही की तरह और जैसा कि पिछले तीन महीनों से हर रोज़ होता जा रहा था, वह हर हालत में निकोलायेव के घर जायेगा ज़रूर।

हर रोज़ रात के बारह बजे, उनके घर से निकलते समय, अपनी चरित्र की ख़ामी पर शर्माते हुए, चिड़चिड़ाहट से अपने आप से वादा करता कि वह दो-एक हफ़्ते वहाँ नहीं जाएगा, और धीरे धीरे बिल्कुल ही उनके यहाँ जाना छोड़ देगा और जब तक वह अपने घर पहुँचता, पलंग पर लेटता और नींद में डूब जाता, अपने वादे को पूरा करने के बारे में वह आश्वस्त रहता मगर रात गुज़र जाती, धीरे धीरे और घिनौनेपन से दिन घिसटता, शाम होती और वह इस साफ़-सुथरे, रोशनीदार घर की ओर, उसके आरामदेह कमरों की ओर, इन ख़ामोश तबियत और प्रसन्नचित्त लोगों के पास, और ख़ासकर नारी शरीर की मीठी सी सुंदरता, उसके लाड़ और उसके नखरों की ओर बेतहाशा खिंचा हुआ चला जाता।

रमाशोव पलंग पर बैठा था। अंधेरा हो रहा था, मगर अभी तक वह अपने पूरे कमरे को देख सकता था। ओह, कितनी उकताहट होती थी रोज़ रोज़ उन्हीं दयनीय, थोड़ी सी चीज़ों को देखने से। छोटी सी मेज़ पर त्युल्पान के आकार का गुलाबी शेड वाला टेबल लैम्प जो गोल, गुस्से से टिकटिक करती अलार्म घड़ी और चपटी दावात के पास रखा था; दीवार पर, पलंग के साथ साथ एक नमदे की पेंटिंग लगी थी जिसमें एक शेर को दर्शाया गया था जिस पर एक नीग्रो भाला लिए बैठा था; एक कोने में मरियल सी बुक शेल्फ, और दूसरे में वायलिन केस की ग़ज़ब की आकृति; इकलौती खिड़की पर फूस का परदा जिसे गोल पाइप जैसा लपेट दिया गया था; दरवाज़े के पास टंगी थी एक चादर जो कपड़ों के रैक को ढांकती थी। हर कुँवारे ऑफ़िसर के पास, हर सेकंड लेफ्टिनेन्ट के पास लगभग ये ही चीज़ें थीं, वायलिन को छोड़कर; इसे रमाशोव ने रेजिमेंट के ऑर्केस्ट्रा से लिया था जहाँ इसकी कोई ज़रूरत नहीं थी, मगर संगीत की आरंभिक चीज़ें भी न सीख पाने के कारण रमाशोव ने साल भर पहले वायलिन और संगीत दोनों ही को छोड़ दिया था।

साल भर से कुछ ऊपर ही हुआ होगा जब हाल ही में मिलिट्री स्कूल से निकले रमाशोव को इन भद्दी चीज़ों पर गर्व था और वह इनका लुत्फ उठाता था। ज़ाहिर है– अपना फ्लैट, अपनी चीज़ें, अपनी मर्ज़ी से चीज़ों को चुनने की, उन्हें ख़रीदने की, अपनी रुचि के अनुसार उन्हें रखने की आज़ादी, इस सब ने बीस साल के लड़के को, जो कल तक कक्षा में बेंच पर बैठता था और अपने साथियों के साथ चाय तथा नाश्ते के लिए लाइन में खड़ा होता था, गर्व और आनन्द से भर दिया था। कितनी उम्मीदें, कितनी योजनाएँ थीं दिमाग़ में जब ऐशो-आराम की इन छोटी-छोटी चीज़ों को खरीदा गया था !

कैसा अनुशासनबद्ध प्रोग्राम बनाया था उसने अपनी ज़िन्दगी के लिए ! पहले दो साल- क्लासिकल साहित्य के मूलभूत तत्वों से अवगत होना और फ्रांसीसी एवम् जर्मन भाषाओं का योजनाबद्ध तरीके से अध्ययन। अंतिम वर्ष में– अकाडेमी में प्रवेश की तैयारी। सामाजिक जीवन को, साहित्य को और विज्ञान को जानना आवश्यक था और इसलिए रमाशोव अख़बार और एक लोकप्रिय मासिक पत्रिका भी मंगवाया करता था.। स्वयँ अध्ययन के लिए वुंड्ट का “मनोविज्ञान”, ल्युइस का “शरीर विज्ञान” स्माइल्स की “सेल्फ-हेल्प” भी खरीदी गई थीं।

और अब किताबें पिछले नौ महीनों से शेल्फ में ही पड़ी हैं  और गैनान भी उनकी धूल झाड़ना भूल जाता है, अख़बार जिनके रैपर्स तक खुले नहीं हैं, मेज़ के नीचे पड़े हैं, मासिक पत्रिका अब नहीं भेजी जाती क्यों कि उनका अर्ध वार्षिक चंदा भरा नहीं गया है, और स्वयम् सेकंड लेफ्टिनेन्ट रमाशोव मेस में जाकर बहुत ज़्यादा वोद्का पीता है, रेजिमेन्ट की एक महिला के साथ उसका लंबा, घृणित और उबाऊ प्रेम प्रकरण चल रहा है। रमाशोव महिला के साथ मिलकर उसके ईर्ष्यालु और तपेदिक के मरीज़ पति को धोखा दे रहा है, वह श्तोस खेलता है और अपनी सेवा, अपने दोस्तों और अपनी ज़िन्दगी से अधिकाधिक घुटन महसूस करता है।

“माफ़ी चाहता हूँ, हुज़ूर !” अचानक धमाके के साथ बरामदे से कमरे में प्रवेश करते हुए सेवक चिल्लाया मगर फौरन ही उसने एक अलग, सीधे-सादे और सहानुभूतिपूर्ण लहज़े में कहा, “बताना भूल गया, पीटर्सन मेमसा’ब ने आपके लिए चिट्ठी भेजी है, नौकर लाया था, तुम को जवाब लिखने के लिए कहा है।”

रमाशोव ने बुरा सा मुँह बनाकर उस लंबे, पतले, गुलाबी लिफ़ाफ़े को खोला जिसके एक कोने में चोंच में चिट्ठी दबाए एक कबूतर उड़ रहा था।

“गैनान, लैम्प जलाओ,” उसने सेवक को आज्ञा दी।

 “प्यारे, स्वीट हार्ट, मुच्छड़ जॉर्जिक,” रमाशोव ने चिरपरिचित नीचे की ओर झुकती हुई, गिचड़-पिचड़ पंक्तियाँ पढ़ीं। “तुम पूरे एक हफ़्ते से हमारे यहाँ नहीं आये हो और मैं तुम्हें इतना ‘मिस’ कर रही हूँ कि पिछले पूरे हफ़्ते बस रोती ही रही। एक बात याद रखना कि अगर तुम मुझे धोखा दोगे तो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाऊँगी। बस मोर्फीम का एक घूँट और मैं हमेशा के लिए तड़पने से बच जाऊँगी। आज शाम साढ़े सात बजे ज़रूर आना। वह घर पर नहीं होगा, युद्ध कला की कक्षाओं में होगा और मैं तुम्हारा कस के, कस के, कस के चुंबन लूंगी, जितना ज़ोर से ले सकती हूँ। आना ज़रूर. 1,000,000,000...बार तुम्हें चूमती हूँ, पूरी तरह से तुम्हारी रईसा।

प्रिये, कहो क्या याद तुम्हें हैं गहरी शाखें ईवा की

इसी नदी पर झुकी हुईं।

जहाँ मिली थी जलते चुंबन की सौगात तुमसे मुझे,

बाँटा था उनको मैंने भी कैसे मिलकर साथ तुम्हारे।   

तुम अगले शनिवार की शाम को मेस में ज़रूर, ज़रूर आना, मैं तुम्हें पहले ही तीसरी काड्रिल पर निमंत्रित कर रही हूँ, ख़ास बात है ! और अंत में चौथे पृष्ठ के आखिर में यह लिखा था।

पत्र से जानी पहचानी सेंट की ख़ुशबू आ रही थी- पर्शियन लिली की, जिसकी बूंदों के पीले-पीले दाग़ कागज़ पर कहीं कहीं सूख गए थे और इनके कारण कई अक्षर इधर उधर बिखर गए थे। इस बासी गंध और पत्र के ओछे-खिलवाड़ करते लहज़े ने और साथ ही कल्पना में उभर आए लाल बालों वाले, छोटे से झूठे चेहरे ने अचानक रमाशोव के मन में असहनीय घृणा भर दी।

उसने शैतानियत से पत्र के दो टुकड़े किए, फिर चार और फिर तब तक छोटे-छोटे टुकड़े करता रहा जब तक कि उसकी उंगलियों को उसे और फाड़ने में तकलीफ़ न होने लगी, फिर ज़ोर से दाँतों को भींचते हुए उसने उन टुकड़ों को मेज़ के नीचे डाल दिया। साथ ही इस दौरान रमाशोव अपनी कल्पना में स्वयँ के बारे में भी तृतीय पुरुष में सोचने से नहीं चुका: “और वह घृणा एवम् कड़वाहट से हँसने लगा।

साथ ही वह यह भी समझ गया कि वह अवश्य निकोलायेव के घर जाएगा, “मगर यह बिल्कुल आख़िरी, आख़िरी बार है !” उसने अपने आप को धोखा देने की कोशिश की और उसका मन सुकून और ख़ुशी से भर गया, “गैनान, कपड़े !”

वह बड़ी बेसब्री से नहाया। उसने नया फ्रॉक-कोट पहना, साफ़-सुथरे रुमाल पर यूडीकोलोन लगाया मगर जब वह पूरी तरह तैयार होकर बाहर निकलने ही वाला था कि गैनान ने उसे रोका।

 “हुज़ूर !” चेरेमीस ने असाधारण रूप से नर्म और विनती के सुर में कहा और अचानक वह अपनी जगह पर नाचने लगा। जब वह किसी बात से बहुत परेशान होता और उत्तेजित हो जाता तो वह हमेशा ऐसे ही नाचता था; कभी एक तो कभी दूसरा घुटना आगे को निकालता, कंधे मटकाता, गर्दन बाहर निकालकर तान लेता और नीचे लटक रहे हाथों की उंगलियों को नर्वस होते हुए हिलाता।

“तुझे और क्या चाहिए ?”

“हुज़ूर, बहुत विनती करता हूँ, मुझे वह सफ़ेद साहब दे दो।”

“ये क्या बात है ? कौन सा सफ़ेद साहब ?”

“वही जिसे तुमने फेंक देने के लिए कहा था, यह रहा वो...”

उसने उंगली से भट्टी के पीछे की ओर इशारा किया, जहाँ फर्श पर पूश्किन का बुत पड़ा था जिसे रमाशोव ने फेरी वाले से खरीदा था। यह बुत, जो उस पर लिखी इबारत के बावजूद एक बूढ़े यहूदी दलाल को प्रदर्शित करता था न कि सुप्रसिद्ध रूसी कवि को, इतने भद्दे ढंग से बनाया गया था, उस पर इतनी मक्खियाँ बैठती थीं, और वह रमाशोव की आँखों में इतना चुभता था कि उसने तंग आकर कुछ दिन पहले गैनान को उसे बाहर फेंक देने की आज्ञा दे दी थी।

“तुझे वह क्यों चाहिए ?” सेकंड लेफ्टिनेन्ट ने हँसते हुए पूछा. “ठीक है, ले लो, मेहरबानी करके उसे ले लो, मैं बहुत ख़ुश हूँ। मुझे वह नहीं चाहिए, सिर्फ़ इतना बता दो कि तुझे वह किसलिए चाहिए ?”

गैनान ख़ामोश रहा और एक पैर से दूसरे पैर पर होने लगा।

 “चलो, ठीक है, ख़ुदा सलामत रखे,” रमाशोव ने कहा। “बस इतना बता, क्या तुझे मालूम है कि वह कौन है ?”

गैनान प्यार से और उलझन से मुस्कुराया और पहले से भी ज़्यादा तेज़ी से नाचने लगा।

 “मैं नहीं जानता...” और उसने आस्तीन से अपने होठ पोंछे।

 “नहीं जानता-तो जान ले, यह पूश्किन है। अलेक्सान्द्र सेर्गेइच पूश्किन, समझा ? अब मेरे साथ दुहराओ: अलेक्सान्द्र सेर्गेइच...”

 “बेसिएव-“ गैनान ने दृढ़ता से दुहराया।

 “बेसिएव ? चलो, बेसिएव ही सही,” रमाशोव सहमत हो गया “मगर, मैं चला, अगर पीटर्सन के यहाँ से कोई आए तो कहना कि सेकंड लेफ्टिनेन्ट साहब बाहर गए हैं, कहाँ – मालूम नहीं. समझ गए ? और अगर कोई रेजिमेन्ट के काम से आए तो भाग कर मेरे पास लेफ्टिनेन्ट निकोलाएव के घर पर आ जाना। अलविदा, बुढ-ऊ !

मेस में जाकर मेरा खाना ले आना और तू खा लेना।”

उसने दोस्ताना अंदाज़ में चेरेमीस के कंधे को थपथपाया, जिसने चुपचाप प्रसन्नता से, जानी-पहचानी, लंबी-चौड़ी मुस्कुराहट से इसका जवाब दिया।    



Rate this content
Log in

Similar hindi story from Drama