वो
वो
उसे, मुझे सुनना अच्छा लगता है,
वो मेरी कविताओं में खो जाये,
ये मुझे
अच्छा लगता है,
उसकी आंखों की मस्ती,
उसके होंठों का कंपन,
जैसे मेरे आलिंगन में टूट रही वो,
चाँदनी में, सागर-सी बह रही हो वो
मैं चाहता मेरी कविता कभी खत्म ना हो,
उसकी मादकता को पी लूँ, फिर भी तृप्त ना हो।
वर्षा की बूंदे धरती पर क्यों आती हैं,
जलधारा मछ्ली को क्यों तरसाती है,
तितली फूलों पर क्यों मंडराती है,
ऐसे तमाम सवालों में, मैं प्रश्न और वो हल हो जैसे,
सूरज की किरने धरती को सींच रही हो जैसे,
और मैं सूर्यमुखी-सा उसमें झूम रहा हूँ जैसे।
उसे लिखने बैठा हूँ,
किसी नए शब्दकोश से शब्द चुराने होंगे मुझे,
धूमिल सारे प्रतिमान भी है अब,
उसको रूपक से रचना होगा मुझे,
जब इस धरती ने सृजन पाया होगा,
उसकी हँसी देख, ये ख्याल आया मुझे।
ना जाने कैसी हाला है वो,
दूर से ही झुमा रही है मुझे,
वो जादू-सी छाई मुझ पर,
पागल बना रही है मुझे,
मैं डूब रहा हूँ उसकी मय में,
वो दूर नयनों से सुरा पिला रही है मुझे,
वो इन्द्र धनुष से भी रंगी है,
हिरनी से ज़्यादा चंचल,
ऊंचे–गिरते झरने के कलरव सी।
प्रात:काल की अंगड़ाई है वो,
हिमनद की जलधारा सी वो निर्मल,
श्वेत अर्थ खो देगा अपना, इतनी उज्ज्वल।
वो धरती के यौवन की तरुणाई,
उसे देख लगता, परीलोक की पारियों में है सच्चाई,
वो बाल शिशु की मुसकानों सी निश्चल,
रूप देवी स्वयं धरा पर आई।
अब जीने का सार वही है,
निज जीवन सौंपूँ उसे, पतवार वही है,
मेरी साँसों की रफ़्तार वही है,
धड़कन की आवाज़ वही है, ये ठोस द्रव क्या मुझको रचते,
मेरा तो निर्माण वही है,
मेरे जीवन का मोक्ष,
महाप्रयान वही है,
जितनी साँसें लेकर आया,
हर साँस की हकदार वही है।