एक कमज़ोर लम्हा
एक कमज़ोर लम्हा
वो धोखेबाज लम्हा जो
जिस्मों को अंधेरों की आड़ में
रच गया एकाकार।
उन्हें कैसे भूले एक पगली
रात के ढलते परत-दर-परत
उतरी एक 'ना'।
हौले से हाँ में बदलने
एक रौशनी की
लकीर फैलती है शब को ढूँढती।
फिर भी दिल बोझिल सा
ढूँढता है उन लम्हों को नोचने
जब ख्यालों के बादलों में
उमड़ते है वो लम्हें।
तब दरिया की लहरों से
संगीत की जगह
चीखें सुनाई देती है।
सुर्ख बादामी मुखड़े पे
परेशानी की पशेमानी की
एक हल्की सी लकीर
दिल को कैसे रुला देती है।
नीला अँधेरा जब बदलेगा
अपनी राज़दार रौशनी में
तब क्या लज्जा से नत नैना
उठा पायेंगे पलकों का बोझ।
बस एक लम्हा ठहर जाता
तितली को ना छूता भँवरा
एक लम्हा।
बस एक कमज़ोर लम्हा
नीले अँधेरे में गुम हो जाता
तब सुबह की
झिलमिलाती रोशनी में
वो चेहरा भी जगमगाता
पगली की आँखों में खुमार लिए।।