बचपन से पचपन की अनुभूतियां
बचपन से पचपन की अनुभूतियां
कदम लड़-खड़ाकर,
जब खुद से बोलने लगे..
यूँ ही चलते भटकते,
कई मोड़ पर चलने लगे..
तब सही थे या अब हालात बदलने लगे,
हां लगता है अब उम्मीदों से लड़ने लगे ।।
बचपन में बेपरवाह जब,
अपनों में खेल खेलने लगे..
पचपन में अपनी ज़िम्मेदारी को,
समझ कर आगे बढ़ने लगे..
बचपन का सफर ही था अनोखा ?
यही मान कर हम खुद से लड़ने लगे,
हां लगता है अब उम्मीदों से लड़ने लगे ।।
बचपन के सफर को,
जवानी तक लाने लगे,
सब पीछे रह गया...
अब यही अफ़सोस जताने लगे,
अवस्था कौन सी "अच्छी व सही थी"
इस सोच में खोने लगे,
अंततः जो मिल रहा है..
वही सही मानकर जीने लगे,
हां अब लगता है अब उम्मीदों से लड़ने लगे ।।
बचपन से पचपन का दौर
कब शुरू किया!! कब खत्म होने लगे ...
नाम मिला जब बचपन में, तब से यही रट लगाने लगे,
नाम कमाना है यही दौड़ में सब निकल जाने लगे,
जीवन के कठिन संघर्ष से गुजरने लगे..
हां लगता है अब उम्मीदों से हम लड़ने लगे ।।