"मेरा मन मेरे बचपन में "
"मेरा मन मेरे बचपन में "
गांव की गलियों में रचता-बसता था
मेरा मन मेरे बचपन में।
हर छुट्टियों में रहता था विकल मन
गांव जाने को मेरे बचपन में।।
होली हो या दिवाली या फिर दशहरा
सभी त्योहारों की मस्ती में बसता था
मेरा मन मेरे बचपन में।।
दिवाली में दीयों में डालना तेल
और फिर मोमबत्ती से जलाना।
पूजा में रखना दूध से धोकर
चांदी के सिक्के,चवन्नी,
अठन्नी और रूपैया
श्री लक्ष्मी गणेश के आगे
एक पटरे पर लाइन में सजाना।
गुझिया,और बेसन के लड्डू से
भोग लगा बाबा का हमें बांटना।।
सभी के घर पड़ोस में पूजा के बाद
पूड़ी का चूरमा बतासे रख बांट आना।
साक्षात आंखों के आगे आ गया आज
मन घूम आया मेरे बचपन में।।
होली के वो उत्साह उमंग से भरे दिन
रात्रि में होली की आग में होरों (कच्चे हरे चने)
और गेंहू की बालियों का भूनना।
सबको घर-घर बांटना और मिलना गले
कितने ही गिले-शिकवे होली के रंग में धुले।।
सुबह होते ही खा-पी गलियों में चले जाना
हुरियारों का ढोल-मंजीरे और फाग का गाना।
चाची-ताई और नयी-पुरानी भाभियां का
उत्साहित देवरों-भांजों पर लाठियां भांजना।
हम तो गली-गली ,छत-छत यूं ही फिरते थे
खेलते तो कम रंग,हुरदंग देखते बहुत थे।।
तीन दिन तक गुलाल, गीले रंग और
कीच-गोबर की अविराम होली चलती थी।
दृश्य चित्र सा जैसे सज गया हो सामने
होली फिर खेल आया मन मेरे बचपन में।।
रामलीला की तो बात ही अनोखी थी
बैठते थे बिल्कुल मंच के सामने
ठंडी में खुले में स्वेटर चादर में दुबके।
सबसे पहले तो श्रीराम की आरती उतरती थी
रामचरितमानस की चौपाइयां गूंजती थीं।
सीता-हरण और लक्ष्मण-मूर्छा में
श्रीराम के वचनों पर आंखें भर आती थीं।।
संवादों और गानों में बड़ा मज़ा आता था
सूर्पणखां की कटे नाक या
कुंभकर्ण को जगाने का हो दृश्य
हमपर तो हास्यरस का खूब रंग छाता था।
हो गये ओझल अब जो रंग थे मेरे बचपन में।।
सूर्योदय से पहले ही नवदुर्गाओं का पूजन
और मन्दिर जाना गाते हुये देवी भजन।
नवें दिन पोखर पर जल-प्रवाह होता था
रात को घर-घर झांझी-टेशू का गान होता था।
मिलते थे बदले में गेहूं, बाजरा और मक्का
कोई कोई ही पैसों से काम लेता था।
सबके लिए अलग थैली,पांच दिन चलती थी
और फिर दुकान पर बेचने को ही खुलती थी।।
दशहरे के मेले के लिए एक चवन्नी
बाबाजी से मिलती थी,इतने में ही
हमारे मेले की खरीद हो लेती थी।
मिट्टी के सेठ-सेठानी या फिर सिपाही
तोता-कबूतर या फिर चटपटी टिक्की खाई।
वो भी क्या दिन थे बन गये स्मृति अब जेहन में।।
गर्मी और सर्दी की छुट्टियों का गांव ही ठिकाना था
गर्मियों में चबूतरे पर या गली में बिछती थी खाट।
इतनी लंबी होतीं अम्मां,ताई की कहानियां
दो-तीन दिन चलती रहती सो जाने की बाट।
किस्से-कहानियां पड़ौसी
आग सेंकते,चबूतरे पर कितने सुनाते।
कोई डकैती का तो कोई किसी झगड़े का
तीन-चार बारी-बारी थोड़ा-थोड़ा बताते।।
सर्दियों में रजाई के अंदर "जागते रहो"
की आवाज बहुत बार डराती थी।
गिट्टू,कंचे,गुल्ली डंडा,चोर-सिपाही
छुपनछुपाई,खिप्पू जैसे खेल खूब भाते थे।
दिखते नहीं अब खेल वैसे जैसे मेरे बचपन में।।
गांव की गलियों में रचता-बसता था
मेरा मन मेरे बचपन में
आज याद किया है पूरे इक्यावन में।।