वक्त वक्त की बात
वक्त वक्त की बात
ऐसा हो जाता है बड़ा होने पर
शूज़ का नाप तो बढ़ जाता है
लेकिन भावनाओं का पैमाना घट जाता है
नटखट मासूम चेहरे पर,
गंभीरता का मुखौटा लग जाता है
अपनों से बेगाना बन भटकता है
जिसे वह अपनी उन्नति कहता फिरता है
जीवन मखोल बन कर रह जाता है
जीना भूल अफरातफरी में लगा रहता है
चलता नहीं भागता है
न अस्तित्व का एहसास न जीने का अंदाज
जो कभी चाहता था
अनुभवी शूज़ में फिट बैठना
अब उनसे ही बेगाना बन बैठा है
पीछे मुड़कर देखना तो दूर
खुद की भी खैर खबर नहीं रखता है
अनुभव से बने सफेद बालों से सजा घर
फिर अनुभवहीन यह रह गया क्यूँ कर
घर के बुजुर्ग तस्वीरों में ही उसका
अल्हड़पन देख हँस लेते हैं
हकीकत तो तस्वीर से बेखबर है
तकदीर बनाने का जुनून
छीन बैठा है अपनों का सुकून
जाने किस मोड़ पर थमेगा यह सफ़र
जाने कैसा होगा ये वक्त तब तलक
यह लम्हा बस यहीं थम जाएँ
काश , सारे गम यहीं खामोश हो जाए