योगी बस यूँ ही
योगी बस यूँ ही
टुकड़ों में बटेगी जिंदगी, रूह पर जो है,
बनी एक कांच की हवेली !
गुप अंधेरे में ऐसे चिल्ला रही,
हुई सांसें मेरी जैसे विधवा नवेली !
आहत करती दीवारें जब,
टकरा कर आती,
दूर खण्डरों से बन,
कर्कश आवाज़ सहेली !
डोल रही कब्र के पास ही,
क़दमों की छाप,
परछाईं भी अकेली !
कभी छाँव कभी धूप ओझल,
आँखों से रूप वेदना,
बनी कुरूप व्यथा,
बनी पहेली !